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रविवार, 21 अगस्त 2016



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जान बची तो लाखों पाएं ...

जान बची तो लाखों पाएं .... मुख्य पात्र : डॉ. जीवनराम घातक, कंपाउंडर चिरकूट, नर्स मिस चमेली, रिसेप्शनिस्ट मिस छिपकली, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव, रेडियोलोजिस्ट डॉ. हाहाकार, और 4-5 पेशेंट डॉ. घातक की क्लिनिक का दृश्य । डॉ घातक अपने कंपाउंडर चिरकुट के साथ बैठा है । और दोनों मोबाइल पर रियो ओलोंपिक पर सट्टा लगा रहे हैं । डॉ. घातक : (उवासी लेते हुए) अर्रे भई चिरकुट मानसून बीता जा रहा है और बिजनेस बड़ा डाउन चल रहा है । सारे पेशेंट कहां मर गए यार ... कंपाउंडर चिरकुट : शहर में आपके होते हुए पेशेंट कहीं और कैसे मर सकते हैं डॉ. साब ...लोगों खत्म करने का ... मेरा मतलब उनकी बीमारियों खत्म करने का लाइसेंस तो आप ही के पास है गुरु ... डॉ. घातक : हां ये बात है... डॉ घातक के साथ रहकर तू भी बड़ा smart हो गया रे आजकल .... क्यों बेटा.... अरे वो देख, वो मोटा मुर्गा आ रहा है । कर दें इसे हलाल .... जेब हो जाए थोड़ी मालामाल... क्या बोलता है कंपाउंडर चिरकुट : एकदम गुरु... एकदम .... घोड़ा अगर घास से दोस्ती करेगा तो फिर खाएगा क्या .... (एक पेशेंट अपने रिश्तेदार के साथ ...मर गया ... अरे मर गया ... चिल्लाते हुए अंदर घुसा चला आता है, रास्ते में रिसेपनिस्ट उसे रोकती है) मिस छिपकली : Hey.. stop stop.. कहां घुसे जा रहे हो । यह हॉस्पिटल है धरमशाला नहीं... पहले यहां रेजिस्ट्रेशन करवाओ । बाद में अंदर जाना ... समझे या समझाऊं । पेशेंट का relative : अरे, आपको पेशेंट की हालत नहीं दिखती क्या । पहले उसे एडमिट तो लिजिए । बेचारा कितना तड़प रहा है दर्द से ... मिस छिपकली : हेलो मिस्टर ... हम यहां पेशेंट की हालत देखने नहीं, बिजनेस करने बैठे हैं, समझे क्या.. नाम क्या है पेशेंट का । समझे या समझाऊं । पेशेंट का relative : वैसे तो इसका नाम राहुल है पर लोग प्यार से पप्पु पप्पु बोलते हैं । मिस छिपकली : अच्छा तो राहुल उर्फ पप्पु (लिखते हुए) .... अच्छा ये बताईए इनकी मंथली इनकम कितनी है । और आखिरी बार कब मरे थे ... समझे या समझाउं... पेशेंट का relative : मरे थे... क्या मतलब है आपका ... और इनकम क्यों बताएं .. मिस छिपकली : सोरी सोरी ... मेरा मतलब कब बीमार पड़े थे ... इनकम .... देखो भाई जैसे तुम्हारे लिए डॉक्टर भगवान है, वैसे ही हमारे लिए पईसा भगवान है... और इसकी दोनों किडनी सलामत हैं ... समझे या समझाउं... पेशेंट का relative : क्या बकवास कर रही हैं आप । यहां पेशेंट पेट दर्द से मरा जा रहा है और आप ऐसे बकवास सवाल पूछ रही हैं । मिस छिपकली : बकवास.... बकवास हम कर रहे हैं या आप ... तब से मर गया मर गया चिल्ला रहा है ये पेशेंट , अभी तक मरा ही नहीं .. फिर बताईए कौन कर रहा है बकवास .. कंपाउंडर चिरकुट : Hey miss chipkalee… आने दो इन्हें अंदर... आजकल पेशेंट ही भगवान का रूप होता है ... इसकी किडनी विडनी हम चेक कर लेंगे ... let him come inside .. डॉक्टर घातक : चलो चलो लेट जाओ बेटा ... देखें कितनी life बची है तुम्हारी .. (डॉक्टर, उठते हैं और पेशेंट को अंदर खींचकर एक खाट पर लेटा देते हैं । साथ साथ ग्लूकोज़ चढ़ जाता है, bp, ecg सब चालू हो जाता है) पेशेंट : डॉक्टर लगता है मेरा BP बहुत बढ़ गया है, सिर चकरा रहा है । डॉ. घातक : हा, हा हा .. अभी तो देखते जाओ तुम्हारा क्या क्या बढ़ता है मिस्टर पेशेंट । चलो तुम लोग बाहर जाओ ... let me check him properly. वैसे मेरा एक फंडा है कि मैं बिना शेर पढ़े पेशेंट को हाथ नहीं लगाता ... तो शेर कुछ यूं है _ अगर तुम जिंदा हो तो ये खुदा की मेहरबानी है अगर हम मेहरबां हुए तो तुम जिंदगी की भीख मांगोगे ... ह हा हा कंपाउंडर चिरकुट : वाह डॉक्टर साब... क्या शेर है .. वाह.. जिंदगी की भीख मांगोगे ..एकदम सही ... वाह वाह ... (पेशेंट को ठोक-पीट कर चेक करता है) पेशेंट का relative : अरे यह हास्पिटल है या मुजायरा सेंटर ... शायरी मारते रहोगे या पेशेंट को भी देखोगे ... डॉ. घातक : पेशेंट को हमने देख लिया मिस्टर फ्रेंच कट , यह बहुत खूबसूरत है ... मेरा मतलब ... he is very fine … लेकिन हमें इसका एक छोटा सा ओपरेशन करना होगा... उससे पहले कुछ चेक-अप करने होंगे । ओपरेशन कल करेंगें । ओके । पेशेंट का relative : पर इन्हें हुआ क्या है ? कंपाउंडर चिरकुट : तुम्हे यह पूछने का हक नहीं है कि इन्हें क्या हुआ ... जब कुछ हो जाएगा तो अपने आप ही पता चल जाएगा । anyway आपको ये सिर्फ 32 टेस्ट करवाने होंगे । (टेस्ट की लंबी सी लिस्ट पकड़ाते हुए) कहीं जाने की जरुरत नहीं है, हमारे यहां सारी facility है । उधर हमारे चाचा का x-ray है, इधर हमारे ताऊ का MRI है, और वहां हमारे मामा का अल्ट्रासाउंड है । और हां ये मिस छिपकली से लाइफ इंश्योरेंस जरुर करवा लेना । क्योंकि ओपरेशन के बाद पेशेंट कहीं ऊपर टपक गया तो तुम्हें लाख दो लाख मिल जाएंगें .. समझे (आकर आराम से चैयर पर बैठ जाता है ) पेशेंट का relative : देवा रे देवा... ये किधर फंस गया रे देवा .. डॉ. घातक : ओफ़ बहुत गरमी है, अरे चिरकुट हमारा मोबाइल नहीं मिल रहा भाई .. । जरा मिस कॉल मार तो तो देखें कहां रह गया सुसरा ... (चिरकुट मिसकॉल मारता है तो अंदर से रिंगटोन आती है, फिर नर्स दौड़ती हुई आती है .... ) सिस्टर : डॉक्टर, डॉक्टर जल्दी चलिए, बैड नंबर 7 का पेशेंट जिसका कल आपने ओपरेशन किया था ना उसके पेट से अजीब सी आवाज आ रही है । डॉ. घातक : आवाज तो मेरे दिल से भी आ रही मिस चमेली ..पर तुम तो कभी सुनना ही नहीं चाहती इस दर्दे दिल को ... सिस्टर : अरे ये क्या डॉक्टर, कहीं पेशेंट मर मरा गया तो क्या होगा, जल्दी चलिए । डॉ. घातक : मरता है तो मरने दो मिस चमेली, हम तो यूं ही मरे पड़े हैं आपके इश्क में ... चलो तुम ... तुम कहती हो तो देख लेते हैं कि बेटा जिंदा है या गया ... (पेशेंट बैड़ पर पड़ा पड़ा चिल्ला रहा है, कंपाउंडर चिरकुट फिर से कॉल करता है) डॉ. घातक : अरे इसके पेट से तो गाना बज रहा है ... कर दे मुश्किल जीना इश्क कमीना... कंपाउंडर चिरकुट : अरे ये गाना नहीं डॉक्टर आपके मोबाइल की रिंगटोन है ... ओपरेशन के चक्कर में कहीं आपका मोबाइल इसके पेट में छूट तो नहीं गया .... नर्स : Oh my God… मोबाइल पेट के अंदर ... अब पेशेंट का क्या होगा डॉक्टर .... डॉ. घातक : तुम्हें पेशेंट की पड़ी है, मेरा देढ़ हजार का मोबाईल अब तक बर्बाद हो गया होगा इसके पेट में .... याद आया... इसके कल ओपरेशन के टाइम पर लाइट चली गई थी ना तो मोबाइल की फ्लैश लाइट से ओपरेट किया था इसे ... शायद हाथ से छूट गया होगा ..... अब इसे नींद का इंजेक्शन देकर मरवा दो... मेरा मतलब सुला दो.. कल इसका फिर से इसका पेट खोलना पड़ेगा ... (तभी एक पेशेंट का अपनी टूटी टाँग लेकर आता है ) पेशेंट : डॉक्टर साब, मेरी टांट टूट गई है । बहुत दर्द हो रहा है । कुछ करें । चिरकुट : आपका X-ray करना पडेगा । डॉ हाहाकार जरा इसका X-ray निकाल लें डॉ. हाहाकार : ओह ... आ जाओ आ जाओ .. लेटो .. अभी लेते हैं तुम्हारा x-ray .. (पेशेंट को एक जगह सुलाकर दूर से एक्स रे निकालता है) पेशेंट : ये कैसा X-ray है भाई .. टांग टूटा है इहां और X-ray कर रहे हो वहाँ... डॉ. हाहाकार : ये आयुर्वेदिक एक्स रे है भईया, इसका कोई साइड इफैक्ट नहीं है । (एकदम से हड़बडाकर उठ जाता है) पेशेंट : आयुर्वेदिक एक्स रे... ये क्या है भाई .. अब कही होमोपेथी प्लास्टर ना चढ़वा देना ..... । डॉ. हाहाकार : टेंशन ना लो बेटा ... मेरा नाम डॉ. हाहाकार है...मैने किये बहुत से चमत्कार ..... अभी आ जाता है तुम्हारा x-ray अरे ये आपकी टांग तो बिल्कुल टूटी पड़ी है .. डॉ. घातक : टाँग टूट गई ... कोई बात नहीं ... आज ही ओपरेशन करके इसमें लोहे की रॉड डाल देते हैं ... चिरकुट कर दो इसे एडमिट भईया ... (सब लोग पकड़कर एडमिट कर देते हैं और ओपरेशन शुरु कर देते हैं) डॉ. घातक : संभाल के संभाल के .. कहीं बच गया तो पाप लगेगा ... अच्छा तुम्हारी आखिरी ख्वाहिश क्या है मिस्टर लंगड़ेप्रसाद .... मैं हर ओपरेशन के पहले पेशेंट की आखिर ख्वाहिश जरुर पूछ लेता हूं ... क्योंकि कल के लिए by chance मर गया तो लिए भूत बनकर मुझे सपने में ना कहे कि मुझे जलेबी खानी है .. कि पोकेमन गो खेलना है .. क्यों darling सही कहा ना मैंने ... नर्स : Yes doctor , you are right .. तो क्या मैं पेशेंट को बेहोश करने के लिए डॉक्टर senseless को बुलाऊं ... डॉ. घातक : डॉक्टर senseless की क्या जरुरत है sweet heart ... ये लो मेरे shocks सूंघा दो ... तीन दिन से पहले उठ जाए तो कहना ...... सूंघाओ सूंघाओ.... डरो मत ... very good .. ये हो गया पेशेंट बेहोश ... अब इसकी ये हड्डी में hole मारते हैं .. ये हो गया hole अर ये डाली उसमें लोहे की रॉड... काम हो गया... ऐसा करते हैं इसका knee replacement भी एक साथ कर देते हैं नहीं तो बुढ़ापे में फिर से ओपरेशन करना पड़ेगा बेचारे को ... कंपाउंडर चिरकुट : हां बिल्कुल डॉ घातक ... ये लो imported knee… चलो ye knee replacement भी हो गया... अब तुम घोड़े की तरह दोडोगे बेटा ... (थोड़ी देर में पेशेंट होश में आता है और रोने लगता है) नर्स : क्या हुआ ... क्यों रो रहे हो ... दर्द हो रहा है क्या ... पेशेंट : दरद वरद गया भाड़ में... हड्डी टूटी लेफ्ट लेग की और ओपरेशन कर दिया राइट लेग का ... बोले तो कंपाउंडर चिरकुट : कोई बात नहीं... कल दूसरे पैर का भी कर देंगे ... मिस छिपकली बिल का एमाउंट डलब करो ... पेशेंट : कल दूसरे लेग का ... ये लोग तो जिंदा आदमी का ही पोस्टमार्टम कर डालेंगें लगता है ... जिंदगी प्यारी है तो भाग ले बेटा ..... बोले तो (कूद फांदकर भागता है ... कंपाउंडर .. नर्स सब पीछे भागते हैं... ) कंपाउंडर चिरकुट : डॉक्टर वो तो भाग गया.... बिना पेमेंट किए ... (सब चिल्लाते हैं ... एक रूक जा ... कहां जा रहा बिना पेमेंट के ... रूको ..) डॉ. घातक : टेंशन मत लो.. मुझे तो ये पेशेंट शक्ल से ही वो चोर लग रहा था इसलिए मैंने उसकी किडनी निकाल ली थी ... बोले तो .. हा हा हा ... (तभी एक MR का प्रवेश ) कंपाउंडर चिरकुट : आईए आईए MR श्री कमीशन सिंह ... कैसे हैं आप कमीशन सिंह : डॉ. साहब आपने तो कमाल कर दिया... आपने तो कंपनी का एक साल का टार्गेट छह महीने में ही पूरा कर दिया ... कंपनी ने आपको लिए ये स्विट्जरलैंड का और चिरकुट के लिए थाइलैंड का पैकेज दिया है । कंपाउंडर चिरकुट : मुझे थाइलैंड क्यों.. मुझे भी स्विट्जरलैंड का पैकेज चाहिए .... मैंने भी तो हमारे पेशेंट की बॉडी में न जाने कितनी किलो दवाईयां डंप की हैं ... कमीशन सिंह : सोरी मिस्टर चिरकुट ... जैसे आप पेशेंट की इनकम देखकर इलाज करते हैं वैसे ही हम भी आदमी की औकात देखकर पैकेज देते हैं .... कंपाउंडर चिरकुट : चलो, चलो.. अभी पेशेंट देखने का टाइम है... निकलो यहां से .. बड़ा आया औकात देखने वाला ... कल से इसकी सारी दवाईयां बंद ... हूट .. (MR कमीशन सिंह का प्रस्थान एक नेता टाइप दूसरे पेशेंट का प्रवेश... उसे देखकर रिशेप्सनिस्ट खड़े होकर नमस्कार करती है) नेता टाइप पेशेंट : हां भई डॉ. घातक कैसे हैं आप ? डॉ. घातक : आईए आईए MLA साब, कैसे आना हुआ ? सब कुशल तो है ना ? नेता टाइप पेशेंट : हां हम तो ठीक हैं, पर उस पेशेंट का क्या हुआ जिसके पेट में आप अपना मोबाइल भूल गए थे । डॉ. घातक : अरे साहब, आप जब तक हमारे साथ हैं तब तक हम मोबाइल क्या पूरा टावर भी पेशेंट के पेट में घुसा दें तो भी हमारा कुछ नहीं हो सकता ... हा हा हा नेता टाइप पेशेंट : बुरा ना माने तो एक बात पूछूं डॉक्टर साब, मैने सुना है कि आप जानवरों का भी इलाज करते हैं... दरअसल मेरे कुत्ते को तीन दिन से खांसी है ... थोड़ा अगर ... डॉ. घातक : हें हें हें ... इसमें बुरा मानने की क्या बात है नेताजी... मैं ओरिजनली जानवरों का ही डॉक्टर हूं ये तो मेरे हाथ एक घोड़ा मर गया तो उसके मालिक ने इतनी लात मारी कि मैं animal doctor से human doctor बनने के लिए मजबूर हो गया ... आपको टेंशन लेने की जरुरत नहीं मैं कल आकर आपके कुत्ते का अल्ट्रासाउंड कर जाउंगा मेरा मतलब चेकअप कर लूंगा.. .. नेता टाइप पेशेंट : thank you doctor… मुझे आपसे यही उम्मीद थी ... डॉ. घातक : चलो रे सब पेशेंट नंबर 1 के ओपरेशन की तैयारि करो ... डॉ हाहाकार... पेशेंट का bp और CT scan निकालो .. चिरकुट तुम इसे ओक्सिजोन चढ़ाओ ... फटाफट करो ... चलो चलो (डॉ हाहाकार दूर से ही bp की रिडींग ले रहा है, सीटी बजाकर उसका सीटी स्कैन कर रहा है... चिरकूट सायकल के पंप से उसे ओक्सिजोन दे रहा है ...फिर उसे OT में ले जाते हैं) कुछ देर बाद ... डॉ. घातक : congratulations friends .. ओपरेशन सक्सेसफूल रहा पर हम पेशेंट को बचा नहीं पाए ... अरे कुत्ते के इलाज के चक्कर में मैं तो इसकी आखिरी ख्वाहिश भी पूछना भूल गया ... पर अभी इसके मरने की बात अभी इसके रिलेटिव को बताना नहीं... लाश को RBU यानी राम भरोसे यूनिट में शिफ्ट कर दो .. जब तक लाश सड़ेगी कुछ कुछ बिल ही बन जाएगा .... पेशेंट का relative : क्या हुआ डॉक्टर मेरे चाचा ठीक हैं ना ... कंपाउंडर चिरकुट : वो एकदम ठीक हैं, उनके हार्ड, किडनी और लिवर को छोड़कर बाकि पार्ट्स एकदम बढिया काम कर रहे हैं ... हमने उन्हें RBU ... मेरा मतलब ICU में रखा है भगवान ने चाहा तो वो तीन दिन में जिंदा होकर दौड़ने लगेगें ... (तभी पेशेंट का रिलेटिव अपनी दाढी-मूंछ उतार देता है और पिस्तोल निकाल लेता है और अपना असली चैहरा पेश कर देता है... सब लोग डर कर एक तरफ़ छुप जाते हैं ।) पुलीस इंस्पेक्टर : मैं हूं पुलीस ऑफिसर करण सिंह ... क्यों जब डॉक्टर नकली, कंपाउंडर नकली, हॉस्पिटल नकली तो एक आध पेशेंट भी तो नकली होने चाहिए ... बहुत हो गया तुम लोग का नाटक ...मैं सबको अरेस्ट करता हूं .... डॉ. घातक : माफ़ कर दो इंस्पेक्टर साब, बहुत ही गरीब डॉक्टर हैं हम तो .. (पर्स से कुछ पैसे निकालकर रिश्वत का इशारा करता है) पुलीस इंस्पेक्टर : रिश्वत देता है, मुझे रिश्वत देता है.... अभी बताता हूं ......... अरे, तुम लोग यहां पेशेंट की जान से खेलोगे... उसकी किडनी निकाल लोगे... फालतु की दवाईयां खिला खिलाकर स्विट्जरलैंड और बैंकाक घूमने जाओगे... जरुरत हो ना हो पर महीना महीना भर पेशेंट को एडमिट कर अपनी जेब गर्म करोगे ..... अरे तुम लोगों ने तो इंसान के जिस्म को अपने experiments करने की laboratory बना रखा है, हर बात पर पर MRI , हर बात पर ultrasound, ये टेस्ट वो टेस्ट .... और आखिर में एक सर्दी खांसी की बीमारी का भी लाख दो लाख बिल बनाकर लोगों को लूटते हो ... पर अब और कानून ये तमाशा नहीं देख सकता ... अब हम ये नहीं होने देंगे ... याद रखो, मेडिकल का प्रोफेशन एक इज्जतदार और humanity का profession है जिसे तुम जैसे फर्जी डॉक्टर बदनाम कर रहे हैं ...लोगों का भरोसा उठता जा रहा है डॉक्टर रूपी भगवान पर ..... तुम्हारे पापों का घड़ा भर चुका है ....चलो अब जेल से चलाना अपनी क्लिनिक ... (हाहाकार और नर्स भागने की नाकाम कोशिश करते हैं ... पर इंस्पेक्टर सब को पकड़कर ले जाता है) _ समाप्त _

बुधवार, 7 जनवरी 2015

उपनिवेश

उपनिवेश  मूल ओड़िया उपन्यास : श्रीमती सरोजिनी साहू  हिंदी अनुवाद : डॉ. राकेश शर्मा मेधा दोपहर से ही उसे खोजे जा रही थी । पता नहीं कहां गायब हो गया यह आदमी भला… । ऐसा होना तो नहीं चाहिए । उनकी पूर्वनियोजित योजना के अनुसार उसे दोपहर को आना था और खाने के लिए वे कहीं वाहर जाने वाले थे । इंतजार से थककर आखिर मेधा ने उसे फोन किया । परंतु दूसरी तरफ केवल रिंग की आवाज़ के बाद खामोश हो गया था फ़ोन । ऐसा होना तो नहीं चाहिए । उसे क्या करना चाहिए इसी उधेड़बुन में उसने एक घंटा बीता दिया । सीने में निरंतर उठती बेचैनी को दबा ना पाकर एक ओर बार डायल किया उसने । अभी कोई रिसीवर उठाकर कहेगा कि अभी आ रहा हूं मैं, बस जरा सा इंतजार करो । पर असल में ऐसा कुछ हुआ नहीं । बल्कि मेधा को और भी अधिक चिंतित और दु:खी करने के लिए टेलीफ़ोन ने अपने यांत्रिक आवाज़ में नहीं....नहीं....नहीं....नहीं....नहीं....चीख कर खामोश हो गया था । उसके बाद न जाने उसके अंदर एक रूआंसां सा भाव पैदा हो गया और बहुत दिनों के बाद उसने महसूस किया प्यार की एक अनुभूति को । ग्राहस्थ्य धर्म को निभाते निभाते उसकी चमड़ी भूरी पड़ चुकी थी । प्यार ? वो तो किसी बीते जन्म की बात है, यही तो कहा था उसके पति भास्कर ने उससे । यह कहते कहते उदास हो गया था वह । फ़िर क्यों था यह सब ? घर्म ? पति का धर्म । स्त्री का धर्म । दोनों अपने अपने धर्म निभाए चले जा रहे थे । कुछ ही दिनों पहले की बात है जब मेधा ने बोरे भर कर चिट्ठियों को जला दिया था ? बीते बीस साल पहले के प्रेमपत्र थे वे सब । कुछ आवेग, कुछ संकोच, कुछ अनुभव, कुछ स्वप्न । युद्ध, राजनीति, संगीत, साहित्य, अंतरीक्ष, सभी को जला दिया था उसनें । कुछ तारीखें, सन्, संबोधन, स्थान, काल, चरित्र, सिंह अशोक स्तंभ, महात्मा गांधी, फूल या बागीचा, नीली-लाल स्याही, सब कुछ जला दिया उसने । जला दिये कुछ चुंबन, स्नेह, आदर....सारा आंगन मानो लाल हो गया था उस आंच से । एक तरफ भास्कर बेठा था गंभीर मुद्रा में और दूसरी तरफ़ मेधा । अधजली चौड़े पन्नोंवाली चिट्ठियों को डंडी से कोंचते हुए और इस अद्भूदत शवदाह के दृश्य को देखकर मलिन हो गया था मेधा का चेहरा । ऐसा लगता था कि वो इन चिट्ठियों के साथ अपना लड़कपन, योवन और अतीत को जला रही है । स्वयं अपनी चिता को जलते देखना जैसा भयानक अनुभव था वो । उसने वर्षों पुरानी इन चिट्ठियों को किसी वितृष्णा, मोहभंग या झगड़े के लिए नहीं जलाया । बल्कि इसलिए जलाया कि वो अब इनका ख्याल नहीं रख पा रही थी । भास्कर ने उससे कहा था, “आश्चर्य, देखो तुम्हारी बीस साल पुरानी साढ़ी अलमारी में यूं ही टंग रही है पर ये चिट्ठियां बिना देखाभाल के नष्ट हो गईं । असल में अब हम अपना प्यार गंवा चुके हैं अपने मन की तह से ।” मेधा ने जबाव दिया _ “ कौन कहता है कि प्यार नहीं है ? परंतु बीस साल पहले के प्यार को क्या इस उम्र में दोहराया जा सकता है ?” भास्कर हँसा था मेधा की बात सुनकर । उसकी हँसी में यही भाव छिपा था कि मानती तो हो ना कि हम अपना प्यार गंवां चुके हैं । क्यों, आज़ तक तो चिट्ठियां नहीं जलाई थी तुमने ? भास्कर ने सवाल किया । नहीं, पहले मैंने नहीं देखा था कि ये चिट्ठियां नष्ट हो रहीं हैं । मेधा यह सोच रही थी कि वो आखिर क्यों इतनी बातों का जवाब दे, आखिर उसकी गलती क्या है ? यथार्थ में हम अब एक दूसरे के जीवन में अपना अस्तित्व कायम नहीं रख पा रहे हैं_भास्कर ने कहा था । चिट्ठियां नष्ट हो गईं, इसका मतलब हमारा अस्तित्व ना रहा एक दूसरे के लिए । क्या यही कहना चाहते हो तुम । इसके बाद मेधा चुप रह गई । वास्तव में झगड़े के मूड़ में है आज़ भास्कर । इस शहर से उस शहर के बीच भटकाव के दौरान यह बोरा भर चिट्ठियां भी घुमती रहीं उसके साथ । असल में दोनों के पास एक-एक बोरे चिट्ठियां थी । मेधा ने भास्कर को लिखी एक बोरी और भास्कर ने मेधा को लिखी एक बोरी चिट्ठियां अपने दांपत्य जीवन की शुरुआत से ही मेधा ने बड़ी संजीदगी से संभाल कर रखी थी । इतने सालों के दौरान केवल दो बोरे चिट्ठियां ? नहीं, हर हफ्ते एक पत्र मिलता था मेधा को भास्कर का । स्कूल की पढ़ाई के समय इतनी चिट्ठियों को संभाल कर रखना मुश्किल था । उसकी अनुपस्थिति में कोई दूसरा इन चिट्ठियों को पढ़ सकता था । डाँट-फटकार, रोक-टोक का पहरा भी रहता था अलग से । इसलिए बीच बीच में कुछ चिट्ठियों को संभाल कर बाकी सभी चिट्ठियों को जला देती थी वह दरवाज़ा बंद करके । होस्टल के दिनों में भी परिस्थितियां वैसी ही रहीं । सहेलियों की नज़र से इन चिट्ठियों को बचाकर रखना मुश्किल हो गया । इसलिए पहले ही की तरह यहां भी कुछ खतों को बचाकर बाकियों को जला देना पड़ता था । भास्कर को लिखी चिट्ठियों को वह क्या करता था यह पता नहीं था मेधा को । शादी के बाद जब मेधा ने भास्कर को लेकर अपना घर संवारना शुरु किया तब गंदे पेंट-शर्ट की जेब में, आले में, टेपरिकार्डर के नीचे, चाय के भगोने में, खाट के नीचे, जैसी जगहों पर उसे अपने लिखे पत्र सुरक्षित मिले थे । उन सभी पत्रों को इकट्ठा कर एक टिन के डिब्बे में सहेजा था मेधा ने । बाद में उस डिब्बे में इलेक्ट्रीकल के सामान, स्क्रु-ड्राइवर, पाना, कीलें आदि रखनी पड़ीं जिसके चलते उसमें रखी चिट्ठियों को एक बोरे में डाल देना पड़ा । शादी के बाद ससुराल आते वक्त कांसे के बरतन, कपड़े-लत्ते, जेवहरात, तेल-साबुन, सिन्दुर-महावर, दवाईयां, सूई-धागा, बटन, नैपकिन, इनलैंड पत्र, कलम, नेलकटर, नील की डीबिया सभी कुछ सहेजा हुआ था इस बक्से में । मानो किसी ऐसे राज्य में जा रही थी वो जहां यह सब कुछ मिलता ही ना हो । या फिर अब उसके लिए एक सुशील नारी की भूमिका निभाने का वक्त है, जिसमें वह किसी से कुछ भी मुंह खोलकर मांग नहीं पाएगी । इतनी सारी चीज़ें तो ले आई थी वह पर वो चिट्ठियों का बोरा छोड़ आई थी अपने मायके में । यद्यपि उन चिट्ठियों की ओर कोई भूमिका न थी उसकी आने वाली जिंदगी में, फिर भी लौटते वक्त उसका दिल हुआ था कि इन चिट्ठियों को यूं अनाथ छोड़ जाना उचित ना होगा । इसलिए कुछ चिट्ठियों को अनावश्यक समझ कर उन्हें चुपचाप जला दिया था उसने और बाकि बची चिट्ठियों को लेकर वह चली आई थी भास्कर के घर । शादी के बाद और आध्यात्मिक प्रेम की जरुरत नहीं रह जाती । इसलिए सहेज कर रखी चिट्ठियों को उन्होंने भूलना शुरु कर दिया था और वे सब पूर्ववत बोरे में ही पड़ी रहीं । बचपन से ही मेधा ने गाना सीखा था । गीत सीखना और गीत गाना दो बिल्कुल अलग चीजें हैं, इस तथ्य को उसनें हाई स्कूल पास करते करते जान लिया था । झरने की झरझर में, हवा की सरसर में चिड़ियों चिर्र-मिर्र में, बैलगाड़ी की कें-कें में, मेघों की गर्जन में, हर जगह प्रकृति ने अपना ताल, लय और संगीत बिखेरा हुआ है । स्कुल में पढ़ते समय अनेकों प्रतियोगिताओं मिले कप, सर्टिफ़िकेट्स, बधाईयां, सब कुछ धीरे धीरे उसे फ़ीके लगने लगे थे । एक बार ऐसा भी हुआ कि नींद में एक सपने में उसने सुना एक अद्भुत संगीत । न जाने कितनी देर से एक इकतारे की ध्वनि सुन रही थी वह । अचानक उसकी नींद खुली और उसने अपनी बड़ी बहन को तकिए में मुंह ढांपे रोते हुए सुना । संगीत के अनजाने रहस्यों की ओर वह जितनी बढ़ती जाती थी उसका मन उतना ही शास्त्रीय संगीत की ओर झुकता जाता था । एक बार बहुत सोच समझ कर उसने अपने मन की बात गुरुजी के सामने खोल कर रखी थी । मेधा ने सोचा था कि गुरुजी उसकी बात से खुश होंगें । उनकी इस छात्रा पर उन्हें गर्व होगा । पर असल में ऐसा कुछ भी न हुआ था । गुरुजी ने अपने पान से रंगे दांतों को दिखाकर ठहाका लगाते हुए हँसा था__ तू शास्त्रीय संगीत सीखेगी? पहले यही सब सीख, स्वर, लय, ताल ठीक रख, यह तो हो नहीं पा रहा है, चली है शास्त्रीय संगीत सीखने । मेधा ने सोचा, क्या सचमुच वो इतनी अयोग्य है कि शास्त्रीय संगीत उसकी ज्ञान, बुद्धि और साधना के दायरे से बाहर की चीज़ है । गुरुजी को बदल दो । नये गुरु से ही शास्त्रीय संगीत सीखने की जिद करके वह रोने लगी थी । उसकी मैट्रिक की परीक्षा सिर पर थी । इसलिए सभी ने उसे समझाया कि संगीत से पढ़ाई अधिक महत्वपूर्ण है उसके लिए । स्थानीय कालेज में बी.एस.सी. पढ़नेवाला भास्कर नाम का एक सुशील और विनम्र लड़के ने उसे ट्युशन पढ़ाना शुरु किया । अलजेब्रा, मेन्स्युरेसन, लाल लिटमस नीला और नीला लिटमस लाल, टाईम यू ओल्ड जपसिक्यान, एनचांटेड शार्ट के साथ साथ ओलम्पिक खेल, फिदेल कास्त्रो, विएतनाम, कार्ल मार्कस, डस्टस-डस्की, खोमेनी, फ्रायड....और भी न जाने किन किन चीजों के बारे में बात करता था भास्कर । वे सारी बाते मेधा के दिमाग में ना घुसती थी । बार बार वह मेधा से कहता था, जानती है, मैं आई.ए.एस. के लिए तैयार हो रहा हूं अभी से । आई.ए.एस. किस चिड़िया का नाम है? यह आकाश से बरसनेवाला कोई रंगीन गोला है या मिट्टी के नीचे दबे किसी मीठे शकरकंद ? यही पूछती मेधा उससे । भास्कर कहता था, बहुत सी बेवकूफ लड़कियां देखी हैं पर तुझ सी कोई नादान लड़की नहीं देखी आज़ तक । मेधा की नादानी ने भास्कर को और भास्कर की बुद्धिमत्ता ने मेधा को आकर्षित किया था । मैट्रिक के पर्चों को लेकर जरा भी चिंतित न थी वह । शास्त्रीय संगीत सीखने की बात भी भूलने लगी थी मेधा । उस वक्त दिन-रात एकांत में बस एक ही संगीत सुनाई देता था उसे । एकांत में भास्कर की हर गतिविधि उसे लगने लगी थी संगीत का छंद, लय, ताल, अंतरा और मुखड़ा । परंतु उसका तर्कवादी मन उससे कहता था, नहीं नहीं, यह प्रेम नहीं, यह प्रेम नहीं है । ‘प्रेम’ शब्द के लिए एक बड़ा मध्यमवर्गीय भय था मेधा के मन में । अच्छी लड़की और गंदी लड़की जैसी निर्दिष्ट धारणाएं बैठी थी उसके मन में । जैसे अच्छी लड़कियां प्रेम नहीं करती और मां-बाप के मुताबिक ही प्रेम करना सीखती हैं । भास्कर के साथ उसका संपर्क प्रेम का नहीं है यह जताने के लिए राखी पूर्णिमा के दिन डाक से एक राखी भेजी थी उसने भास्कर के लिए । तब उसने शुरुआत ही की थी अपने कॉलेज के दिनों की और भास्कर एम.एस.सी करने के लिए कटक गया था । कुछ दिन बाद उसकी भेजी राखी लौट आयी थी उसके पास और साथ में थी भास्कर की एक छोटी सी चिट्ठी_“पगली, फिर कभी राखी मत भेजना ।” इस चिट्ठी में ऐसा क्या था जिसने मेधा को प्रभावित किया था ? फ़िर तो वह जैसे भास्कर के सांचे में मानो ढलती चली गई । भास्कर को कार्ल मार्क्स अच्छे लगते तो कार्ल-मार्क्स की थ्योरी को जाने बिना ही मेधा भी उसे पसंद करने लगी । भास्कर डालर संस्कृति और उपनिवेशवाद से नफ़रत करता तो मेधा को भी इन चीज़ों से नफरत होने लगी । भास्कर गांजा पीता तो वह कहती कि जीवन में हर प्रकार का रसस्वादन कर लेना चाहिए । एक दिन भास्कर कंपेटिटिव परीक्षाओं को गालियां देने लगा । मेधा ने भी उसके सुर में सुर मिलाया__हां, आई.ए.एस और यह एलायड़ परीक्षाएं एक बोद्धिक जुआ नहीं तो ओर क्या है? हर हफ़्ते भास्कर की चिट्ठी आती थी और वह भी अपनी नोटबुक के नीचे छिपाकर भास्कर को लंबी चिट्ठियां लिखा करती थी । मेधा जब कटक पढ़ने के लिए गई तो भास्कर भी किसी छोटी –मोटी नौकरी के सिलसिले में जमशेदपुर चला गया था । एक लंबे अरसे तक उन दोनों में केवल पत्राचार के द्वारा ही संपर्क था । यहां तक जब वो ओडिशा लौट आया तब भी यही चिट्ठियां हीं केवल उनके बीच संपर्क का पुल बनी रहीं। वे सारे खत आज़ आखों के सामने काले धुंएं में बदल गए । कुछ धुंआ उनकी आंखों और नाक में घुसकर आसूंओं से उन्हें रूला चुका था । आग की लालिमा भास्कर के एक गाल पर झलक रही थी और वह एक चमकती तांबें की मूर्ति सा लग रहा था । जरुरत से ज्यादा गंभीर दिखाई दे रहा था आज़ भास्कर । मानो एक भयंकर लोहे का हथोड़ा इसी क्षण उसके समस्त व्यक्तित्व को टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहता हो । मेधा बारबांर भास्कर की और देखती थी और रुंआसीं हो जाती थी । जैसे सारी गलती उसी की हो । उसने ही आले में रखी बोरे भर चिट्ठियों को चर जाने के लिए दीमकों से कहा था । कहा था थोड़ी व्याकुलता, थोड़े प्यार और थोड़े दुलार को खा जाने को । चिट्ठियां जब धीरे-धीरे मिट्टी के ढेर में बदलने लगीं, पता नहीं क्यों मेधा को लगा कि अब इनको जला देना चाहिए । इमोशन, सेंटिमेंट, अतीत, स्मृति-विस्मृति कोई भी शब्द तब उसके रास्ते में दीवार बन कर खड़ा न हुआ था जब उसने इस चिट्ठी के ढेर को अपने आंगन में आग के हवाले कर दिया । हां, जब वो जलती हुई चिट्ठियों को आग के पंजे से छुड़ा ना पाई तब उसका मन कहने लगा कि कुछ खास चिट्ठियों को छांट कर रख लेने पर अच्छा होता । बीस साल पहले वो कैसे देखती थी जिंदगी को. भास्कर को, और लोगों को, चादं-तारों को, माटी को, हवा को, हंसने रोने और अभिमान को । कैसी थी बीस साल पहले की राज़नीति और इतिहास? भास्कर की ताम्रवर्णी मूर्ति की ओर देखकर उसने कहा__कुछ चिट्ठियों को छांट कर रख लेते तो अच्छा होता । जलती हुई एक चिट्ठी उठाकर अपनी सिगरेट सुलगाई थी भास्कर ने और उसके बाद मेधा के हाथ से छड़ी लेकर जलती हुई किसी लाश के अवशेषों को अंतिम बार कोंचते हुए और ठीक से जल न पाई चिट्ठियों को उलटते-पलटते हुए कहा था__इनकों रखने से क्या होगा? ये सब तो अब बीते जन्म की बाते हैं । 2 जीवन में हमेशा एक मोटिव फोर्स, एक प्रेरक बल होता है, इस तथ्य पर विश्वास करती है मेधा । यही शक्ति का स्रोत ही इंसान को पचास, साठ या सत्तर साल तक जिलाए रखती है । इसी स्रोत के पीछे दौड़ते-दौड़ते कोई भ्रमर में फंस जाता है तो कोई अपनी सारी जिंदगी में इस स्रोत को पहचान ही नहीं पाता है और अंत में साठ-सत्तर साल की उम्र में अनुभव करता है_आह, इसी के लिए ही शायद जिंदा था वह । वो गुजरात या राजस्थान की बुढ़िया जिसे दिवारों पर कलात्मक चित्र बनाते बनाते देश-विदेश में अपने चित्रों की प्रदर्शनी करने का मौका मिला था, पता नहीं क्या नाम था उसका ? अंग्रेज़ी साहित्य की किताबों के ढेर से, मिल्टन, सेक्सपियर, वाइरन, इलियट आदि के क्लोज-अप चित्रों के बीच से किसी सरिसृप की चाल से मानो निकल कर आया था वो सोता जिसे अपने ग्रेजुएशन के चार वर्षों के भीतर खो दिया था मेधा ने एक छोटे से शहर के छोटे से परिवेश में । हास्टल की जिंदगी पूरी तरह से अलग थी उसके पुराने जीवन से । एक अद्भुसत विरोधाभास का समावेश था जैसे । सौ-देढ़ सौ लड़कियों में भी उसे एकाकी कर देता था वह अकेलापन । लोहे की ग्रिल का गेट और उसके रिश्तेदार उस हॉस्टल सुपरिटेडेंड की रोकटोक के भीतर अपनी आज़ादी से खुशबू में अपनी मर्जी के मुताबिक जीने की मादकता से मुग्ध हो गई थी वह । बल्कि यहीं उसने पहली बार होम सिकनेस को अनुभव किया था । हास्टल में खाने के लिए वह कभी डाइनीं हाल को जाती न थी । नीता उसके लिए टिफ़न कैरियर में भात डाल कर ले आती थी उसके कमरे में । टेबल पर टिफ़िन को रखकर उसे कह कर जाती थी_ खा लेना दीदी । चार बज़े जब वो टिफ़िन को साफ़ करने आती थी तब देखती थी कि सब कुछ वैसा ही रखा रहता था, मेधा ने किसी चीज़ को हाथ भी न लगाया होता था । नीता तुनककर कहती थी _दीदी इसबार तुम्हारी मां को आने दो, सब कुछ बता दूंगी । तुम यहां विल्कुल भी खा-पी नहीं रही हो । वो मोटे चावल का भात, पानी जैसी दाल, मिक्स्ड्‍ सब्जी़...उसे बहुत तकलीफ़ होती थी यह सब खाने में । दिन भर में दस कप चाय और चने की सब्जी़ खाकर वो मज़े ले रही थी हॉस्टल की ज़िंदगी के । रात के समय मेधा पर एक काली भयावह परछाई मानो चढ़ी आती थी । ऊह..उह..की आवाज़ के साथ उसका दम घुटने लगता था । पहले वो परछाई उसके कमरे की खिड़की की रैलीं के सहारे झुक कर देखती थी उसे । उसके आने की भनक पाकर जैसे ही मेधा खबरदार होकर बैठने की कोशिश करने लगती, वैसे ही वह परछाई भीतर से बंद दरवाज़े को पार कर अंदर आ जाती और मेधा को ऐसा लगता मानो एक भारी-भरकम शरीर हावी हुआ जा रहा है उस पर । उसकी बेचैनी भरी आवाज़ों को सुनकर प्रतिमा उठकर बैठ जाती थी । लाइट जलाकर पूछती थी_क्या वो काली परछाई फि़र आई थी मेधा ? उस वक्त मेधा पसीने में तरबतर होकर सूखे पत्ते सी कांप रही होती थी । प्रतिमा उसे अपने बिस्तर पर बुला लेती थी । वो कहती थी_इस बार मौसी के आने पर उनसे कहूंगी कि मंत्रों से सिद्ध की गई कोई ताबिज़ दे तुझे पहना दें जिससे ये सपने फ़िर नहीं आएगें तुझे । भास्कर की चिट्ठियां मेधा को सुबह दस बजे़ तक मिल जाने पर भी वो उसे रात के दस बज़े पढ़ती थी । चिट्ठी के बंद लफ़ाफे को वैसे ही टेबल क्लॉथ के नीचे छुपा कर रख देती थी वह और डिपार्टमेंट, स्टड़ी सेंटर आदि से लौट कर वो हॉस्टल की खुली छत पर चली जाती थी । छत से लौटकर पढ़ाई-लिखाई करते-करते कब नौ-साढ़े नौ बज़ जाते पता ही नहीं चलता । ठीक सोने से पहले वह भास्कर की चिट्ठी को खोलकर पढ़ती थी । सुबह के दस बजे़ से रात के दस बज़े तक चिट्ठी पाने का आनंद उसके सीने में चंपा के फूल सा महकता रहता था । कभी कभी उसका रिश्तेदार हस्टेल सुपरिस्टेंडेंट आकर कहता था, मेधा चलो एक बार साढ़ी पहन कर दिखाओ । हमेशा पगलियों की तरह बाल बिखेरे रखती हो । बाल संवार लो । कुछ पावड़र वगैरह लगाकर आओ मेरे कमरे में । मेधा जानती थी कि क्यों उसे पैरलल पैंट और टॉप को छोड़कर साढ़ी पहनने को कहा जा रहा है । उसका दिल करता था कि कह दे, मेरे लिए परेशान होने के जरुरत नहीं है, मैं खुद भास्कर को लेकर परेशान हूं । पर वो कैसे कहती यह, मजबूरी में साढ़ी पहनकर और माथे पर बिंदी लगाए अपने रिश्तेदार सुपरिस्टेंडेंट के कमरे में जाना पड़ता था उसे । कभी कोई बुढ़िया, कभी प्रौढ़ औरतें तो कभी कॉलेज़ की लड़कियां उसे देखने के लिए इंतजार करती मिलती । वे उसके साथ उसके कमरे तक चलीं आती थीं। ...और कैसा सज़ाया है मेधा ने अपना कबर्ड, इस बहाने से उसके कबर्ड की चीज़ों को उलटने-पलटने लगतीं । असल में वे यह जानना चाहती थीं कि मेधा का कोई अफैयर चल रहा है या नहीं । मेधा भास्कर की सभी चिट्ठियों को अपने गद्दे के नीचे छिपाकर रखती थी । हस्टेल की अधिकतर लड़कियों के पुरुष-मित्र थे । शाम के चार बजते ही उनका अपने अपने यारों से बतियाने का सिलसिला शुरु हो जाता था । मेधा का कोई पुरुष-मित्र न था । उसके साथ कमरे में रहने वाली दूसरी लड़की का घर भुवनेश्वर होने के कारण वह सप्ताह में तीन-चार बार घर का दौरा कर लेती थी और बाकि तीन-चार दिन वह मेधा के साथ रहती थी । कभी कभी मेधा का दिल करता था कि जोर जोर से रोए । पर वो रोती न थी । बल्कि अपना कमरा बंद करके कभी प्रतिमा के बिस्तर पर लेटती तो कभी अपने बिस्तर पर । खिड़की से नीचे रास्ते पर चलने वाली गाय-बकरियों और बच्चों को देखती रहती । पढ़ने में उसका बिल्कुल भी मन नहीं लगता था । वो अपनी पढ़ाई की किताबों के साथ पहले वाली आत्मीयता को खो चुकी थी । वो वैसी किताबें पढ़ती थी जिनसे उसकी पढ़ाई का कोई वास्ता न था । इन्हीं दिनों उसकी मित्रता हुई थी अदिति से । अदिति का गांव था तुलसीपुर । कभी-कभार को छोड़ दें तो गाड़ी उसे अपने हॉस्टल तक छोड़कर जाती थी । वहीं से दोनों साथ में डिपार्टमेंट जाती थीं । सातवीं तक अदिति ने अपनी पढ़ाई अंग्रेज़ी स्कूल में की थी । उसके बाद ओड़िया स्कूल से मैट्रिक तक की पढ़ाई की और फिर कॉलेज में अंग्रेजी़ ऑनर्स को चुना । कोई एक मोटिव फोर्स अनजाने ही उसे अदिति के पास खींचकर ले जाती थी । सप्ताह में दो-तीन दिन वो अदिति के घर जाती थी शास्त्रीय संगीत सीखने । तुलसीपुर में एक विशाल हवेली थी उनकी । घर में पुराने जमाने का सोफा और पलंग, लकड़ी की अलमारी, शो-केस और भी न जाने कितने तरह के फर्नीचर भरे हुए थे । अदिति ने उसे बताया था कि यहां उसके पापा, चाचा, ताऊ सब मिलकर रहते हैं । अदिति की छोटी बहन नृत्य सीखती थी और वह संगीत । उनकी मां काफ़ी मोटी होने के बावजूद स्लिवलैस ब्लाउज पहनती थी । उनके चेहरे से अहंकार टपकता था । अदिति ने अपनी मां से मेधा के बारे झूठ कहा था । उसने कहा था__मेधा के पिता सिविल इंजिनियर हैं । उसने ऐसा क्यों कहा यह पूछने पर उसने अदिति ने हंसकर कहा था__मूर्ख लोग झूठ से ही राजी रहते हैं । परंतु अदिति के पिता बहुत स्नेही व्यक्ति थे । और शायद इसी वज़ह से मेधा को अदिति के घर में संगीत सीखने का मौका मिल पाया था । गुरुजी ने कहा था एक की जगह दो हों तो रियाज़ करने में उत्साह आता है । हॉस्टल में रियाज़ करने की कोई सुविधा न थी । संगीत सीखने के लिए और हास्टल के खर्चे के निवाह के लिए मेधा को कुछ ज्यादा पैसे लाने पड़ते थे घर से । उसके पापा खुद आकर उसके रिश्तेदार सुपरीटेंडेंट से कहकर चले गए थी कि मेधा हफ़्ते में दो दिन संगीत सीखने के लिए अदिति के घर जाएगी । अदिति के घर का रहन-सहन जमींदारों के घरों की तरह था । उसके दादा रंगून में ठेकेदारी करते थे और द्वितिय विश्व युद्ध के बाद वे ओडिशा लौट आये थे । खानदानी काम के रूप में अदिति के बाप-दादा सभी ठेकेदारी करते थे । उनके मकान का अधिकांश फ़र्नीचर वर्मा से लाई लकड़ी से बना था । मेधा को लगता था कि उनके मकान के ऊपर के तले पर है आज़ादी और नीचे के तले पर है केवल पराधीनता । इसलिए उपर के तले में आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ लड़कों का नाच-गाना, ऊंची आवाज़ में बातचीत, ठहाके, मारपीट, कुस्ती-कसरत और युद्ध सभी कुछ चलता रहता था । परंतु नीचे का तला था मानो दुख का जीवित अवतार । इस तले में स्त्रियों का निवास था । यहां बाहरी लोगों के आने-जाने पर पाबंदी थी । अदिति कहती थी कि उसके घर में बहुत सारे कायदे-कानून हैं । कुवांरी लड़कियों के रसोईघर में जाने की मनाही थी । घर की बहुएं ही रसोई में जा सकती थी और वो भी सिर्फ़ मांड की साड़ी में, न कि सूती साड़ी में । अदिति की मां के अलावा घर की किसी दूसरी स्त्री से मेधा की बात तक नहीं हुई थी । वो केवल उन स्त्रियों को दूर से ही देखा करती थी । बहुत समय पहले ही मेधा संगीत का व्याकरण भूल चुकी थी । हारमोनियम की रीड के साथे ताल पर ताल देकर चलना। ଉଦାରା ରୁ ମୁଦାରା, ମୁଦାରା ରୁ ଉଦାରା । सीढ़ी दर सीढ़ी कूदते हुए वह लौट रही थी कई दिनों से छोड़ चुके अपनी स्मृति के शहर की ओर । आरोह, अवरोह, आलाप, गत्, देश्, विलावल, तिलक कामोज, इषत इमन, बेहाग, दरबारी कनाड़ा। धूमिल भोर, सूनी दोपहरी और आधी-रात की निस्तब्धता में उसने आश्चर्य से निहारा था ठुमरी, ठप्पा और खयाल के अदृश्य चेहरों को । गले की ताज़गी, सुर-लय, ताल-सम, गत आलाप आदि के भीतर वो फिर लौट चली थी उस प्रवाह, जीवन के प्रवाह की ओर । उसकी किशोर दुनिया में इतने व्याकरण न थे । परंतु ऐसा एक जादू था । एक सरस उमंग थी । अब वही ‘दुखवा मैं कासे कहूं सजनी’ गाते वक्त उसने फिर से पा लिया था उसी प्रवाह को । एक बार गुरुजी ने कहा था__ अपनी इस ओड़िशा की धरती पर रहते हुए कुछ किया न जा सकेगा । शास्त्रीय संगीत के साथे अभ्यास करने और इसे साधने के लिए ओड़िशा से बाहर जाना होगा । यहां ना तो कोई मौका है और ना ही प्रोत्साहन । तुममें प्रतिभा है तो क्या हुआ? जंगल में नाचने वाले मौर को किसने देखा है । सुनंदा पटनायक का ही उदाहरण देख लो । कलकत्ते में उनकी कितनी शोहरत है पर पर ओड़िशा में उन्हें कौन पूछता है । उस साल एम.ए. पार्ट वन के पेपर खराब गए थे मेधा के । कुल चौवन प्रतिशत से भी कम अंक आये थे उसके । मेधा को बड़ा दुख हुआ था । सैकेंड पार्ट में उसे हर हाल में अच्छा करना है, मन ही मन यह प्रतिज्ञा की थी उसने । भास्कर की एक लंबी चिट्ठी मिली थी उसे । भास्कर ने उसे खबरदार किया था कि हॉस्टल में बुरी संगत में पड़कर कहीं वह अपना कैरियर ना बिगाड़ ले । परंतु गुरुज़ी मेधा को लेकर बहुत आशावादी थे । मानो उनकी यही छात्रा ही उनका नाम रोशन करेगी । अदिति का संगीत के लिए हृदय से प्रेम न जाने क्यों कम था । रियाज़ के वक्त वो बड़ी अनमनी रहती थी । बोल भी उसके याद न रहते थे । गुरुजी बड़े असंतुष्ट रहते थे उस पर । वो अक्सर अदिति की तुलना मेधा से करते थे । अदिति को मेधा पर ईर्ष्या नहीं आती थी बल्कि वो यह सुनकर हँस देती थी । गुरुजी के जाने के बाद वो कहती थी, यह सब मुझसे नहीं होगा । कहती थी_ जानती हो, हमारे घर में इसे स्टेटस सिंबंल माना जाता है । आरती के इस बीच दो प्रोग्राम हो चुकें हैं और मेरा एक भी नहीं । इस बारे में मां की तकलीफ़ देखने लायक है । कह रहीं थी कि यह मास्टर कुछ काम का नहीं है । कुछ भी हो, अदिति अपने मां के दु:ख के लिए हो या अपनी कोशिश के चलते हो दोनों ने आकाशवाणी में ऑडिसन का टेस्ट दिया और युवा कलाकार के रुप में वे ‘सी’ ग्रेड के अंतर्गत नामित हुए थे । ढाई साल में सिर्फ तीन बार बजा था मेधा का गीत रेड़ियो पर । हॉस्टल के दिन कैसे बीत गये पता ही न चला । एम.ए. सैकेंड पार्ट के पैपर भी अच्छे ना हुए थे उसके । मेधा ने सोचा था कि हॉस्टल में और चार-छह महीने रहकर थर्ड ईयर की परीक्षा देकर ही चली जाती । बड़ी उदास रहती थी मेधा उन दिनों । ना तो परीक्षा ठीक हुई और न ही संगीत में कुछ खास कर पाई थी वह । कभी कभी उसे अपने वो छोटे शहर के दायरों से घिरी जिंदगी में फिर से लौट जाने की बात सोचकर ही रोना आता था । उसकी बैच की लड़कियां अपने सामान बांधकर एक एक कर हॉस्टल छोड़कर चली गयीं थीं । सिर्फ़ वो ही रह गयी थी वहां अकेले । पर ज्यादा दिन वो भी न रह पाई थी वहां । अपने रिश्तेदार सुपरीटेंडेंट से कहासुनी हो गई थी उसकी । भास्कर की दी हुई एक चिट्ठी पता नहीं कैसे उसके हाथ लग गई थी । गाने सीखने के नाम पर किस छोकरे के साथ फिरती हो तुंम ? बेहद रुखे और निर्दयता के स्वर में यह पूछा सा उसने मेधा से । कौन छोकरा ? किसके साथ घूमती हूं मैं ? भास्कर ? वह यहां से तीन सौ किलोमीटर दूर किसी देहात में रहता है , यही कहना चाहती थी मेधा । पर उसने कहा था__आप मुझे गलत समझ रही हैं । सचमुच जैसे कुछ पता ही नहीं तुम्हें, व्यंगात्मक स्वर में कहा था उसने । और जो अश्लील चिट्ठियां आती हैं तुम्हारे पास..... ? अश्लील ? चुंबन के साथ हर पत्र का अंत करता था भास्कर । इस चुंबन में अश्लीलता है ? आज़ तक वो यह समझ नहीं पाई थी कि चुंबन को लेकर भारतीयों में इतनी उत्सुकता क्यों रहती है । यहां तक कि किसी फ़िल्म में कोई किसी का चुंबन ले ले तो सेंसर बोर्ड से लेकर सिने पत्रिकाओं के सिर में दर्द शुरु हो जाता है । प्रेम के इजहार के इस सुंदर तरीके को लोग अश्लील क्यों कहते हैं । होंठों को तो छिपाकर नहीं रखा जाता कपड़ों के नीचे, फिर अश्लीलता कहां से आ गई । मेधा इससे पहले कोई जबाव देती उसने फिरकहा__सिर्फ चुंबन तक ही सीमित हो या मामला और भी आगे बढ़ चुका है ? ‘छी, कितनी फूहड़ है यह औरत’, मन ही मन सोचा मेधा ने । तुम खुद से ही पूछो, उसने फिर जोड़ा था, ‘हिंदू परंपराओं का कैसा अधोपतन है’ । उसकी बात सुनकर मेधा के शरीर में मानो आग सी लग गई । _“लगता है हिंदू परंपराओं का पूरा ठेका आपने ही ले रखा है अपने सिर पर? दो उदाहरण तो खुद आपके पास हैं । दूसरों से कुछ कहने की जरुरत नहीं ।” मेधा ने गुस्से में यह सब बोलती चली गई । इन सुपरीटेंडेंट महाशया ने प्रेमविवाह किया था और अपने पति से तलाक भी ले चुकीं थीं । मेधा का जबाव सुनकर उसकी शक्ल देखने लायक थी । मेधा सीधे चली आयी थी अपने कमरे में । अपने बक्से को सहेजा था । किताबों और बिस्तर को समेट कर रख दिया । कैंटिन जाकर बाकि के पैसे चुकता किए । हास्टल और मैस के पैसे मैट्रन को दे दिए । एक रिक्शा बुलाकर सीधे पहुंच गई वो बादामबाड़ी बस-स्टैंड । 3 भास्कर के साथ मेधा की शादी जब तय हो गई बहुत हां-हां और नां-ना के बीच, तब मेधा ने सोचा था कि वो सचमुच भास्कर से शादी करना चाहती है या नहीं ? यह तो सच था कि वो भास्कर से प्यार करती थी परंतु शादी की परिकल्पना तो उसने कभी की नहीं थी । एक आदमी के साथ वह सारी उम्र कैसे बिताएगी भला ? शायद एक बंधनहीन जीवन चाहती थी वो जिसमें प्यार हो, सेक्स चाहे हो ना हो पर एक ऐसा नीरस वैवाहिक जीवन न हो। यह बात उसने किसी से मुंह खोलकर नहीं कही थी । अगर कहती तो सभी उसे पागल ही समझते । वे यही कहते कि अगर ऐसा ही है तो फिर इतना नाटक क्यों किया । हमारी तो तेरी भास्कर से शादी कराने की इच्छा न थी । उसका बाप एक मामूली किसान है । दो कमरे का एक खपरेल का मकान है उनका । सिर्फ तूने जिद की इसलिए लड़के की नौकरी देखकर हम राज़ी हुए । मेधा अपनी भावनओं को छिपा कर नहीं रख पाई थी । भास्कर से उसने अपने मन की यह बात कह दी । भास्कर से उसने कहा था कि एक आदमी के साथ सारी उम्र कैसे काटेगी यह उसे समझ में नहीं आ रहा । हैरान रह गया था भास्कर उसकी बातें सुनकर । मेधा को चेहरे को ऐसे देखने लगा मानो किसी अनजान भाषा में बोल रही हो मेधा जिसकी बारहखड़ी उसकी समझ से परे हो । मेधा ने अपनी बात फिर दोहराई । एक आदमी के साथा ताउम्र का निर्वाह मनोटनस नहीं है क्या ? बेकार के मजाक मत करो, __ भास्कर ने कहा था । मैं सच कह रही हूं । मुझ पर यकीन करो, इस समय मेरे मन में यही एहसास है । दया करके ऐसी बातें मत करो । यह तो सोचो कि तुम्हारी ऐसी बातें सुनकर मुझे कैसा लग रहा होगा । हमारी शादी की तारीख पक्की हो चुकी है । कपड़े-लत्ते, गहनें सब खरीदे जा चुके हैं । तुम्हें बुरा नहीं लगना चाहिए । बल्कि यह सोचना चाहिए कि मैं कितने खुले दिल की हूं । मेरी भावनाओं को लेकर मैं कितनी सजग हूं । इस घड़ी जो मन में आया बेलाग तुमसे कह दिया । खाक, और ज्यादा इंटेलेक्चुअल बनने की कोशिश मत करो, यही कहा था भास्कर ने । उसके बाद पता नहीं क्या सोचकर उसने कहा__ ठीक है, घर में यह बात बता दो । या फिर मैं ही बता देता हूं । मेधा ने हंसकर कहा था__घरवालों को बता देने पर क्या समस्या का समाधान हो जाएगा । तुमसे नहीं तो कहीं और शादी करांएगें वो मेरी । तो फिर वो एक ही बात नहीं है क्या ? वही सारी जिंदगी एक ही आदमी के साथ । मेधा सोचती थी कि वो चाहे भास्कर हो या कोई एक्स, वाई, जेड़, बात तो एक ही है । एक बांबें डाईंग की बेड़सीट बिछी चादर, एक डाईनीं टेबल, अपना बनाव-श्रृंगार करती औरत सा मेहमानखाना और एक सबसे बोरीं रसोई, जैसा कि इनार का घर था । मेधा बी.ए. में पढ़ते वक्त, एक नवविवाहिता लड़की ने एडमिशन लिया था उसकी क्लास में । वो क्लास और कॉमन रुम में बेहिसाब उवासी लिया करती थी । ऐसा कभी भी नहीं लगता था कि पढ़ाई में उसका कुछ मन है । एक बार वह मेधा को अपने घर बुला कर ले गई । एकदम ऐसा ही तो दृश्य देखा था मेधा ने उसके घर पर । शादी के पहले कुछ सपने दिखाए भास्कर ने । रानीखेत चलेंगें, मसूरी-दार्जिलीं चलेंगें या फिर गोवा । शिमला या फिर कश्मीर । लिखता था कि टिकवुड़ का पेलमेट बना दिए हैं सभी खिड़की और दरवाज़ों के लिए । मोटे पर्दे का कपड़ा ले आया है । भगवान जी के लिए भी एक पालना बना दिया है और दीवारों पर क्रीम रंग से रंगाई कर दी गई है । शादी से पहले जब बातचीत करने के लिए भास्कर के पिता आए थे तो उन्होंने यही कहा था _समधी जी हमें कुछ नहीं चाहिए । हमें तो बस लड़की पसंद है और सिर्फ उसे ही सौंप दीजिए हमें। मेधा सोचती है कि उसके बाबा ने उसे बहुत ठगा है । उस सीधे इंसान के भोलेपन की बजह से हो या फिर भास्कर के रुप में मेधा की पसंद से क्षुब्ध होकर हो । शादी के लिए एक भी सामान लाकर रखा नहीं था उन्होंने घर पर । उसे कुछ हजार रुपये देकर कहा था कि तुझे जो खरीदना हो खरीद लेना । क्या खरीदती भला मेधा । किसी अपने के लिए सूट-बूट, शादी का जोड़ा कभी उसने खरीदा न था । गद्दे, नैलपालिश, घड़ी, लिपस्टिक, शेवीं सेट, इससे बढ़कर और क्या असहायता हो सकती थी मेधा की । बाबा का इस प्रकार का व्यवहार आश्चर्यजनक न था क्या । आखिर तक मेधा उसे दिए हुए पैसे खर्च नहीं कर पाई थी । सिर्फ दो सूटकेस खरीदे थे उसने । एक चमड़े का और दूसरा फाईवर का । चार-पांच साड़ी, कुछ मैचिंग ब्लाउज और ढेर सारे कास्मेटिक्स । मुझसे यह नहीं होगा कि सारी चीजे़ बाज़ार में फिर-फिर कर खरीदूं _अपने बाबा से कहा था मेधा ने । सोच रही थी कि पूछेगी__कहीं यह सारी चीजे़ कोई लड़की खुद खरीदती है भला। पर पूछ न पाई थी । बाबा ने कहा था__ मेरे पास वक्त कहां है ? मेधा के दिल में आया कि पूछे _लड़की की शादी से बड़ी कोई और बड़ी व्यस्तता होती है क्या एक बाप के लिए ? पर पूछ न पाई थी अपने अभिमान के लिए । नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए । शादी से दो दिन पहले उसकी बड़ी दीदी आकर पहुंची थी भोपाल से । मेधा ने जो चीजे़ खरीदीं थी उन्हें देखकर हँस हँस कर दुहरी हुई जा रही थी वह । भास्कर के लिए सूट कहां है ? घड़ी खरीदी है ? लगता है, तुझे भी मां का रोग लग गया है? दूल्हे के सामानों का सूटकेस किधर है? जरा भी दुनियादारी पता नहीं है तुझे। बड़ी कटी-कटी सी रहती थी दुनिया से मां । खाना पकाने जैसा छोटा-मोटा काम तो कर लेती थीं वह पर उनके हर काम में एक उदासीन सा भाव झलकता था । दूसरी होशियार औरतों सी तिकड़मवाजी की ताकत नहीं थी उसमें । कोई भी त्यौंहार-वार हो, शादी-व्याह हो हर अवसर पर नियम-कायदों के बारे में दस बार पूछना पड़ता उन्हें दूसरों से । मेधा को याद है किस तरह बड़ी दीदी की शादी के वक्त जब दूसरी औरतें अपना अपना कानून बघार रहीं थीं तब मां कुछ औरतों के साथ बैठकर बातचीत में मग्न थी । गुस्से में तब ताई ने कहा था, देखो अपनी बेटी की शादी हो रही है और मां को गप्पे लड़ाने से ही फुर्सत नहीं है। इनके घर में कौन सी चीज़ कहां रखी है, यह भला हमें कैसे पता ? एक तरह से मौसी, मामी, चाची ने ही मिलकर उठाई थी उस शादी की सारी जिम्मेदारी । सूई से लेकर पहाड़ तक के सारे सामान का दो दिनों में ही इंतजाम किया था बड़ी दीदी ने । शादी में वैसे कोई बड़ी असुविधा हुई न थी । भास्कर के गांव के लोगों ने पर यह जरुर कहा था कि भास्कर के ससुराल वालों ने अच्छी खातिरदारी नहीं की । मेधा को पता था कि यह एक बेमेल शादी है । इसलिए गांव की औरतों की बातों से दु:खी नहीं हुई थी वह । मेधा को जैसी शंका थी कि अपना संसार ठीक से बसा नहीं पायेगी, वैसा कुछ भी न हुआ । भास्कर के सरकारी क्वार्टर में आने के बाद दोनों ने अपने मकान को संवारा था । यद्यपि कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा था उसे, जैसे कि दो जनों के लिए महीने भर का आटा-दाल लाने की एवज में चार महीनों का राशन उठा लाई थी वह । दो लोगों के लिए पकाने लायक भगोना लाने की जगह दस लोगों के लिए पकाने लायक डेकची ले आई थी । बहुत दिनों तक उसे पता ही नहीं चला कि उनके घर में कोई शाक-भाजी ही नहीं खरीदी जा रही है । पर ये छोटी-मोटी मुश्किलें वक्त के साथ सुलझ गईं थीं । अधिकतर दिनों में भास्कर को टूर पर जाना पड़ता था और मेधा को दिनभर अकेला ही रहना पड़ता था । शाम को चौकीदारी करने के लिए आनेवाले वन विभाग के बूढ़े गार्ड के साथ बैठकर गप्पें किया करती थी वह । लकड़ी माफिया, हाथी दांत के सौदागर, तेंदुए और जंगल की दैवी, ऐसे सभी विषय शामिल रहते थे उनकी बातों में । कहानी के सुरुर में जंगल के बारे में कई काल्पनिक कथाएं भी सुनाता था वह बुढ़ा । जंगल की देवी कैसे के सुंदर लड़की का वेश बनाकर जंगल में घुमा करती हैं । कैसे एक बार उसे शादी का प्रलोभन देकर सूखे गड्ढे़ में डाल दिया था उस देवी ने । कैसे एक बार जब रोशनी देखकर लकड़ी माफियाओं के होने के संदेह में जब वो उसके जाकर देखा तो वहां एक मणिधारी नाग अपनी मणि पर फन फैलाये बैठा था । इस तरह की कपोल-कल्पित घटनाओं को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता था वह । एक बार एक बब्बर शेर ने जंगल में एक पेड़ के पास उसे घेर लिया और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने पर ही उसने उसका रास्ता छोड़ा । ऐसी अनेक विचित्र घटनाएं सुनाया करता था वह । उसकी बातें सुनकर मेधा को लगता था कि वो फ़िर से एक बार गुलिबर की कहानियां या डान क्विजॉट की कहानियों में खो गई है । उन्हीं दिनों की बात है, मेधा के नाम पर एक चिट्ठी रि-डायरेक्ट होकर आयी थी अचानक । हां, अचानक नहीं तो और क्या ? पता नहीं उस दिन कितनी बार पढ़ा होगा उस चिट्ठी को उसने। ‘स्वर गुंजन’ के कुछ युवा कलाकारों को लेकर कलकत्ता के कालीमंदिर में एक कार्यक्रम होने जा रहा था । मानो किसी परी कथा से अपने अतीत की और ले चली थी वह चिट्ठी उसे । मेधा के दिल में बड़ी खुशी हुई । खुशी के मारे वह बारबार दरबाज़े पर आकर भास्कर का रास्ता देखती । यह सोचकर उसे बड़ा आश्चर्य होता था कि इस घने जंगल से किसने उसे खोज़ निकाला है । हालांकि चिट्ठी उसके मायके से ही रि-डायरेक्ट होकर आयी थी पर उसे हॉस्टल छोड़े हुए आठ महीने और और इस जंगल में आये हुए दो महीने हो चुके थे । धीरे धीरे उसे यह जंगल और यहां का सरल जीवन आकर्षित करने लगा था । चारों तरफ़ पहाड़ों से घिरे इस छोटे से शहर के साथ उसके अंदर एक आत्मीयता का भाव आ गया था । उसे लगता था मानों बुलबुल या कठफोवड़ा पक्षी के साथ उसकी गहरी दोस्ती हो गई है । चीड़ के वृक्ष की ऊंचाई और स्वाभिमान को देखकर खुद को वह बहुत बोना महसूस करती थी वह क्योंकि उसकी जैसी शान से वो शायद ही कभी सीधी खड़ी हो सके । तेंदूपत्ते तोड़ती औरत को देखकर वो कई बार सोचती कि काश वो भी उसकी तरह कोमल तेंदूपत्ते चुनकर अपनी अंटी में खोंसती । सौ तेंदुपत्तों की कीमत क्या है ? मैं भी तुम्हारे साथ तेंदुपत्ते तोड़ूंगी । हंसी मज़ाक करती थी वह उन औरतों से । भोर में उठकर सत्तर वर्षिय बूढ़े या बहती नाक वाली लड़की के साथ महुल के फूल चुनने की इच्छा होती थी उसकी । चिट्ठी को मुट्ठी में पकड़कर कुछ नर्वस भी हो गई थी वह । इससे पहले उसने कभी किसी दर्शक, विचारक या समीक्षक का सामना नहीं किया था । कभी बचपन में स्कूल की तरफ़ से देशभक्ति गीत गाकर ट्राफी लेकर आई थी वह । इस बीच उसने एक दिन भी हारमोनियम को छूआ तक नहीं था । रियाज़ भी किया न था । कैसे जाएगी वह संगीत सम्मेलन में । मेधा ने मन ही मन सोच लिया थी कि वो वहां नहीं जाएगी । भास्कर उस चिट्ठी को पढ़कर बहुत खुश हुआ । उसने मेधा को समझाया कि कुछ हो ना हो एक अच्छी जगह तो घूम आओगी तुम । संगीत की कुछ हस्तियों से मुलाकात भी हो जाएगी । कलकत्ता कोई छोटी-मोटी जगह तो है नहीं, पूर्वाचंल संस्कृति की पीठ है वह। कितनी बड़ी बड़ी हस्तियां आईं होंगीं वहां। ना बाबा ना, मुझसे नहीं होगा वहां जाना। मेधा ने कहा था। हार-जीत बड़ी चीज़ नहीं है । अपने को पहचानना ही बड़ी चीज़ है । उसके अलावा सभी सम्मेलन में आये युवा कलाकार तुम्हारी तरह ही या तुमसे उन्नीस-बीस ही होंगें । पहले से ही इतना भयभीत होना ठीक नहीं । भास्कर का उसे इस प्रकार जितनी भी प्रेरणा और हिम्मत देने पर भी मेधा को अपने ऊपर भरोसा नहीं था । मेधा नहीं जाना चाहती थी, इसलिए उसने भास्कर की चुंटी काट कहा था__तुम इतना जोर क्यों दे रहे हो जाने पर ? पहले जब में संगीत सीखती थी तो चिट्ठी में लिखते थे कि इन बेकार कामों में वक्त बरबाद करने से अच्छा है कि पढ़ाई में दिल लगाओ । अब ये बदलाव क्यों ? तुम भी तो बहुत बदल गई मेधा । इसी संगीत के लिए तुमने अपने एम.ए. के पैपर खराब किए थे और आज़ जब वही संगीत तुम्हें बुला रहा है तो तुम उससे मुंह फेर रही हो ।” आखिर में दोनों ने मिलकर फैसला किया कि मेधा जाएगी । पर वहां जाने से पहले वह अपने संगीत के गुरुजी से मुलाकात करेगी । अगर वो मेधा के साथ जाने के लिए तैयार हों तो भास्कर को उसके साथ जाने की भी जरुरत नहीं पड़ेगी । उस हरे-भरे जंगल से घिरे छोटे शहर को छोड़ मेधा चली आई थी अपने मायके । सोचा था कि उसके कलकत्ते से मिले आमंत्रण की बात सुनकर पापा खुश होंगें । पर असल में ऐसा हुआ था क्या ? गाना गाने के लिए कलकत्ता जाने की क्या जरुरत है ? भास्कर क्यों नहीं आया साथ में ? तू क्या भास्कर से जिद करके आई है ? भास्कर ने उसे जिद करके भेजा है, इस बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ । मां ने कहा, अब तेरी शादी हो गई, अब इन चीज़ों की क्या जरुरत है ? मानो सिर्फ़ शादी के लिए, और खासकर सिर्फ़ शादी के लिए ही किसी लड़की को पढ़ाई करनी पड़ती है, संगीत सीखना पड़ता है, खाना पकाना और कढ़ाई-बुनाई सीखना पड़ता है । शादी के बाद इन चीजों की कोई जरुरत ही नहीं । मेधा ने कहा था__ तुम तो उसी क्रांतिकारी चीनी कहानी की मां की तरह बात कर रही हो । चीनी कहानी की मां । मां चिढ़ गई थी । अरे सुनो, वो कहानी थी, कहा था मेधा ने । वो चीनी मां बड़ी सीधी और मेहनतकश थी । दिन भर वो खेत में काम करती थी और शाम को घर लौटकर बचे समय में चादर पर एंब्रोडरी करती थी । वो चाहती थी कि उसकी लड़की भी उसी की तरह बने । वो मां उसकी बेटी को बुलाकर कहती_देखो चिंपु जाति की लड़की होकर अगर तुम सर्दियों से पहले घाघरे में कढ़ाई-बुनाई का काम ना सीख सकी तो यह कितने शर्म की बात है । ऐसे में तुझसे कौन शादी करेगा । लड़की खेतों में तो जाती थी पर वहां से ताश के पत्ते (placard) लेकर न जाने कहां गायब हो जाती थी । शरद ऋतु आ गई । मां के मन में यह आशंका घर करती जा रही थी कि इस लड़की से अब घाघरे पर बुनाई का काम नहीं हो पाएगा । वो रेशम की रंगीन धागे लाकर घर में रख देती है और अपनी बेटी को ताकिद करती है कि वो चौखट से बाहर अपने कदम नहीं रखेगी । मां खेतों में काम करके जब लौटती है तो देखती है कि लड़की का कहीं पता नहीं है । मां और बेटी के बीच यूं ही लुका-छिपी का खेल चलता रहता है । एक दिन लड़की रोक-टोक के इस खेल से ऊब जाती है और सारे सूत फेंक देती है और अपनी मां से कहती है. “मां, मैं जा रही हूं मां, फिर कभी उड़कर तेरे पास लौट आउंगीं । फूल पत्तियों की ऐसी सुंदर कढ़ाई बुनुंगीं घाघरे पर जैसी किसी ने ना बुनी होगी ।” इतना कहकर वो लड़की लाल रास्ते पर गायब हो जाती है । ऐसा नहीं लगा कि मां ने कहानी से कुछ समझा बल्कि व्ह मेधा से यह पूछने लगी कि तेरी सास कैसी औरत हैं ? मेधा ने गुरुजी से मुलाकात की। उसने सुना कि अदिति अपनी शादी के बाद अमेरिका चली गई है । उन्होंने इस पर अपना दु:ख प्रकट किया था । क्या फायदा ऐसा संगीत सीखकर ? कभी कभी बड़ी तकलीफ़ होती है यह सोचकर कि सारी मेहनत पर पानी फिर गया । शिष्य अगर अपने गुरु का नाम ऊंचा ना कर सके तो फिर हमारा गुरु होना तो बेकार ही गया न । किसी कुपात्र को दान देने पर जैसा दु:ख होता है कुछ वैसा ही दु:ख हो था गुरुजी के मन में । पिता-पुत्र और गुरु-शिष्य का संबंध एक जैसा ही होता है । गुरुजी ने कहा__स्वर गुंजन के इस कार्यक्रम के लिए मैंने ही तेरा नाम प्रस्तावित किया था । आज़कल रियाज़-वियाज़ कुछ करती हो या नहीं । तेरा पति कैसा आदमी है ? संगीत से कुछ प्रेम है उसे या नहीं ? भास्कर को संगीत पसंद है या नहीं, यह नहीं जानती थी मेधा । वैसे उसने मेधा से कभी कहा नहीं था एक-आध गीत गाकर सुनाने के लिए । फिर उसने जोर देकर क्यों भेजा उसे इस कार्यक्रम के लिए? क्या इसलिए कि मेधा अब उसकी मिल्कियत है ? अब मेधा की सारी तरक्की उसके पति की तरक्की में निहित है, इसलिए ? क्या कहे अब वो गुरुजी से ? रियाज़ के बारे में क्या वह यह कहे गुरुजी से कि अब वो छोटी लड़की एलिस हो गई है । वांडरलैंड में घूमती फिर रही है । बूढ़े फॉरेस्ट गार्ड की कहानियों का एक चरित्र बन कर पीछे-पीछे दौड़ रही है उसके । नहीं, ऐसा कुछ नहीं कहा था उसने । ऐसे में जब अदिति के अमेरिका जाने की बात से गुरुजी पहले से ही दु:खी हैं, तो उसकी बात सुनकर और भी दु:खी सकते हैं । शास्त्रीय संगीत की मांग अब और नहीं रही__कहा था गुरुजी ने । ऐसा लगता था मानो इतने दिनों से उनके मन में उमड़ रहे दु:खों को एक साथ उंडेल देने का मौका मिला है उन्हें । आजकल शास्त्रीय संगीत कोई सीखना नहीं चाहता । सभी जरा सी साधना से ज्यादा नाम कमाना चाहते हैं । टी.वी. पर आना, फिल्मों के लिए गाना, कुछ न हुआ तो अपने कैसेट्स का चौराहों पर बजना, यही तो चाहते हैं आजकल के कलाकार । हर दौर का अलग राग होता है, वो यह कहना चाहती थी । वक्त के साथ खुद को न ढाल लेने पर अपने वजूद के ही मिट जाने का खतरा रहता है । जो बदलती परिस्थितियों के साथ खुद को बदल नहीं लेता है उसका नामो-निशां ही मिट जाता है । डायनासोर्स हो या फिर संस्कृत भाषा । पर नहीं, उसने गुरुजी से कुछ नहीं कहा था । हो सकता है कि तर्क करने के लिए ऐसा कहा जा सकता है पर हर इंसान के अपने कुछ सिद्धांत होते हैं जिन्हें लेकर वो अंत तक जीता रहता है । मेधा को लगा कि गुरुजी काफ़ी अकेले हो गए हैं । ऑर्केस्ट्रा, रेड़ियो, कैसेट कंपनी, फिल्म यह सारे गुरुजी को भूलते जा रहे हैं । गुरुजी ने कहा, “तू चिंता मत कर, मैं कलकत्ता जा रहा हूं । तू रियाज़ करती रह ।” उसे लगा जैसे उसके निसंग गुरुजी कह रहे हैं, “कोई आये ना आये हम साथ में चलेंगें तेरे।” गुरुजी के घर से निकलते हुए उसने मन ही मन निश्चय किया, चाहे कुछ भी हो वो कलकत्ता जरुर जाएगी । 4 मेधा को भास्कर की कई बातें अच्छी नहीं लगती थीं । उसके खाने का तरीका, खड़े होने का ढंग और सबसे बढ़कर उसकी ठोड़ी उसे गाय की ठोड़ी जैसी लगती। पर इन चीजों को अपने से अलग नहीं कर सकता था भास्कर । “अरे तुम सीधे खड़े नहीं हो सकते । ऐसे झुककर खड़े होने पर नौकरों सा भाव नहीं आता तुम्हारे मन में।” .......“ मैं क्या कर सकता हूं, मेरा बायां पैर शायद कुछ छोटा है । सीधे खड़े होने पर बहुत दर्द होता है ।” कहा था भास्कर ने । खाते वक्त बहुत जोर से हिलती थी भास्कर की ठोड़ी । उसका यह तरीका बेढंगा लगने पर भी बुरा मान जाने के डर से मेधा कुछ कहती नहीं थी भास्कर से । परंतु बाहर कहीं पार्टी बगैरह में या होटल में खाते वक्त भास्कर के लिए बहुत असहज महसूस करती थी मेधा । जैसे एक्स-रे से भी तेज़ आंख हो, भास्कर मेधा के मनोभाव को पढ़ लेता था और कहता था, “क्या करुं कहो, मुझमें कोई सुंदरता का भाव नहीं है ।” कभी कभी मेधा बहस करती थी__ तुम इसका दूसरा मतलब क्यों निकालते हो, मेरे कहने का वो अर्थ नहीं था । कभी कभी मन ही मन वो आत्मग्लानि का अनुभव करती थी_ भास्कर कितना अच्छा है, कितना प्यार करता है उससे । उसे भास्कर के साथ इस तरह पेश नहीं आना चाहिए । मेधा को ऐसा लगता था कि दांपत्य जीवन का कंबिनेशन बड़ा ही अद्भुतत होता है । बहुत कुछ रसायन विज्ञान के माप-तोल की तरह । क्रिया, प्रतिक्रिया, संघटन, विघटन, उद्वेलन, स्थिरिकरण । या फिर कुछ सूक्ष्म तांबे या निकल के तारों के ताने-बाने की तरह । एक इंसान के साथ सारी उम्र बीताने की कल्पना से कभी डरी हुई मेधा को आज़कल इसकी बड़ी चिंता रहती है कि कहीं किसी बात पर दांपत्य जीवन का कोई पुर्जा बिगड़ ना जाए । खूब सतर्क रहती है वो । पर उसके मायके में कोई इस बात को समझता नहीं है । भास्कर को देखते ही उसके बाबा उसके प्रमोशन और ऊपरी कमाई के बारे में ही पूछते हैं । वो यह नहीं समझ पाते कि ये बातें भास्कर को कितना आहत करती होगीं । रात को सोते वक्त इन बातों पर भास्कर का सारा गुस्सा मेधा पर उतरता था । क्या सोचते हैं तुम्हारे बाबा ? तुम्हारी शादी मुझसे करके बहुत बड़ा एहसान किया है उन्होंने मुझ पर ? उनकी बेटी से शादी कर ली इसका मतलब यह हुआ कि योग्यता हो या ना हो सारी प्रमोशन परोस कर रखी हुई हैं मेरे लिए । उसके अलावा ये ऊपरी ऊपरी की क्या रट लगाए रहते हैं तुम्हारे बाबा ? मेधा समझाती है, “देखो वो हमारे हितेषी ही हैं । हमारे बुजुर्ग के लिहाज से वो हमारी आर्थिक उन्नति ही चाहते हैं, इसमें इतना नाराज़ होने की क्या बात है ? भास्कर कहता है_ मुझे पता था कि तुम अपने बाबा की ही वकालत करोगी । बाबा और भास्कर के झगड़े में मेधा की हालत खराब हो जाती है । पता नहीं क्यों पर भास्कर को स्वीकार नहीं कर पाते हैं बाबा । क्या सिर्फ इसलिए कि भास्कर एक गरीब किसान का बेटा है और कभी ट्युशन किया करता था । अभी भी वो भास्कर को एक ट्युशन मास्टर की तरह ही देखते हैं । बाबा के व्यवहार से कभी कभी स्वयं भी अपमानित महसूस करती थी मेधा । खासकर जब बड़ी दीदी और जीजाजी भोपाल से आये हुए होते हैं । उस समय वो जान-बुझकर ऐसा करते हैं या उनसे ऐसा हो जाता है, यह कहना मुश्किल है । आशु भाई आ रहे हैं, यह खबर मिलते ही बाबा स्टेशन पर पांच लोगों को उनकी अगवानी के लिए खड़े करवा देते हैं । घंटा दो घंटा पहले ही फ्रिज़ में मिठाई, फल, दही, चिकन, रोहू मछली सब कुछ सज जाता है । जवांई के लिए तो इतना करना ही पड़ता है । पर भास्कर के लिए ऐसी कोई तैयारियां नहीं होतीं । यह सब उसे जितना बुरा लगता उससे ज्यादा उसे तब अखरता जब आशु भाई पांव पसार कर सोफा पर बैठे होते और बाबा किसी नौकर की तरह उनके आगे-पीछे लगे रहते । आशु भाई के रहने तक मां भोर से उठकर हर्पिक-फिनॉयल डाल कर लैटरीन को चकाचक कर देतीं । सुबह पानी गर्म किया जाता था उनके नहाने के लिए । उनकी सेवा-टहल के वास्ते घर में सभी की दौड़-भाग लगी रहती । यहां तक कि कभी कभी बाबा मेधा पर चिड़चिड़े से होकर कहते__अरे, यहां क्या बैठी है, जाकर जीजाजी से बातें कर । या फिर बाजार से खरीद कर लाई गईं गर्मागर्म जलेबी का पैकेट उसके हाथ में थमाते हुए कहते_जा, जाकर दो-चार जलेबियां जीजाजी के लिए लगा । मेधा सोचती थी कि भास्कर के होते हुए वो आशु भाई से क्यों बातें करे । आशु भाई के खाने या न खाने का हिसाब क्यों रखे ? इतने पर ही बाबा के अत्याचार समाप्त नहीं होते थे । सोने के लिए सबसे अच्छा कमरा भी आशु भाई के ही हिस्से में आता था । इसके अलावा कभी कभी कुछ ऐसी आंखों को चुभने वाली घटनाएं भी घट जाती थीं जोकि भास्कर ही क्यों मेधा को भी बड़ी असह्य लगती थीं । जैसे एक बार कुरसी पर आशु भाई बैठेगें कहकर भास्कर को बाहों से पकड़कर उठा दिया था बाबा ने । बात कुछ यूं थी__आशु भाई टी.वी. देखेंगें इसलिए बाबा के कहे अनुसार मेधा के छोटे भाई ने टी.वी. के एक्दम सामने एक कुर्सी लाकर डाल दी । यह बात पता नहीं थी भास्कर को । वो बाहर से लौट कर ही आया था । खाली कुरसी देखकर बैठ गया वह । तभी बाबा ने तपाक से आकर भास्कर को बांह से पकड़कर उठा दिया...“उठो उठो, यहां आशु बैठेंगें, जरा लट्रीन गए हैं । यह घटना इतने अचानक से घटी कि मेधा का चेहेरा एकदम फक् से रह गया । भास्कर के चेहरे को देखने की हिम्मत न हुई उसकी । उसके दिल पर क्या गुजरी होगी यह सोचने से पहले ही वह छत पर दौड़कर चली गई । उसी तरह की एक और घटना भी घटी थी कभी । वे सब पिकनिक के लिए गए हुए थे । सभी लोग जब तैयार होकर दरवाजे़ पर आ गए तब बाबा ने निर्देश दिया कि पीछे की सीट पर आशु और वनिता बैठेंगें अपने दो बेटों को लेकर । आगे मेधा, मेधा का छोटा भाई और छोटी बहन कुकी बैठेगी । भास्कर तो मोपेड़ में चला आएगा । उस बार पहली बार मेधा ने मुंह खोला था__ रहने दीजिए, मैं नहीं जाऊंगी । मन नहीं कर रहा है । क्यों, क्या हुआ तुझे जो तू नहीं जाएगी ? पूछा था बाबा ने । बस यूं ही, मन नहीं कर रहा है । क्या अच्छा नहीं लग रहा है ! दीदी-जीजाजी क्या सोचेगें । भास्कर क्या सोचता होगा, यह भी कभी सोचा है आपने ? क्यों, क्या हुआ भास्कर को ? जा तो रहा है वो भी, कहा था बाबा ने । मेधा समझा न सकी थी उन्हें । किसकी कितनी खातिर करनी है इस प्रक्रिया में कहीं कुछ जो खोट है वो एक पिन की तरह चुभ रहा था उसे । ठीक घर से निकलते वक्त किसी प्रकार का ड्रामा करने की इच्छा न थी मेधा की । उस दिन पिकनिक का आनंद न ले सकी थी वह । दिन भर वो सहज न हो पाई थी । लौटकर मां से सारी बातें कही थी मेधा ने । मां का स्वभाव संसार से निर्लिप्त और नादानी भरा था । कहने लगीं, “ हां, तेरे बाबा की तो हमेशा से भेद-भाव की नीति रही है । कुछ भी हो, हैं तो दोनों ही अपने दामाद । मेधा को कितनी बुरी लगी होगी यह बात ।” मन में चारों तरफ से घुमड़ रहा बादल जैसे गरज़ कर बरस गया, मां की बातें सुनकर उसे जरा हल्का लगा । भास्कर पर अपने दु:ख को भुल न पाया । रात में दोनों में जमकर बहस हुई । भास्कर सुबह उठकर बापस लौट जाना चाहता था पर मेधा ने कहा कि बस, दो दिन की ही तो बात है । पहले से जब हमारे जाने की तारीख सब को पता है, ऐसे में अगर पहले ही चले जाएं तो यह सब लोग क्या सोचेंगें आखिर। क्या सोचेंगें मतलब? तुम्हारे घर में क्या किसी के पास कुछ सोचने की ताकत भी है ? बाबा की आदत तो ऐसी ही है न, उसमें क्या किया जा सकता है बताओ ? अब हमें हमेशा तो उनके साथ रहना है नहीं । उल्टे इसपर इतनी प्रतिक्रिया दिखाकर सबकी चर्चा का विषय बनना मुझे पसंद नहीं । ठीक है, तुम जैसा कहोगी वैसा ही होगा । कल से तुम्हारे आशु भाई की सेवा में लग जाऊंगा । कपड़े प्रेस कर दूंगा । जूते पालिश कर दूंगा । मेधा उठकर बाहर चली आई थी । प्लीज बंद करो । मुझे यह नाटक और अच्छा नहीं लगता । बाबा और तुम्हारे जी में जो आता है करो । मुझे और बीच में मत घसीटो, थक गई हूं मैं । 5 दूसरों की कामयाबी जल्दी नज़र में आती ना कि उसकी नाकामयाबी । न जाने ऐसा क्यों लगता है कि अपने आस-पास के लोगों से मैं कुछ ज्यादा ही दुःखी हूं । कामयाबी मेरे हाथों से दूर है । बड़ी दुर्लभ चीज है वह। आज तक मेधा ने गुरुजी को बसंत बहार या मेघ मल्हार या फिर बसंत बहार की राग-रागीनियों में देखती आई थी। उसने उन्हें एक गुरुगंभीर समुद्र की गर्जना या कलकल कर बहते झरने के ऊपर आसमान उड़ते पक्षी की कलरब या मदमस्त बहती हवा की निश्वास ही समझा था। हाथ पर झोला लटकाए सब्जियों पर झुके हुए गुरुजी, फुटपाथ पर मोची के पास बैठकर पुरानी चप्पल टांके सुधारती पत्नी की व्यंगात्मक बातों से खुद को सिमटे-सिकुड़े महसूस करते इस गुरुजी के रूप को उसने कभी देखा न था। चांद की सतह की तरह रूखी और खुरदरी थी गुरुजी की जिंदगी। शायद ये सारी बातें मेधा की नजर में नहीं आती यदि वो गुरुजी के घर पर जाकर इतने करीब से उनके जीवन को वो नहीं देखती। सुबह से दोपहर के बारह बजे़ तक मट्ठे की साड़ी पहन कर कोई ना कोई मंत्र के उच्चारण में लगी रहती थी गुरुजी की पत्नी। आंगन में उनके यहां से वहां चहलकदमी करते रहने का दृश्य ही नज़र आता था तब । हर बार आंगन को पार करते हुए वो एक सरसरी नज़र डाल देती थीं मेधा पर । उनकी इस नज़र में न जाने क्या भाव होता था पर मेधा इससे कुछ आशंकित सी हो जाती थी । वह ऐसे सकपका जाती थी मानो कोई महापाप हो गया हो उससे। उसका लय-ताल बिगड़ जाता था। गुरुजी़ नाराज़ हो जाते थे उस पर। पर उसके सुर-ताल के टूटने का कारण मेधा कह नहीं पाती थी उनसे। कई बार मेधा की इच्छा होती थी कि वो उन्हें “मौसी” पुकारकर बरामदे से उठकर आंगन में जाए, परंतु उनकी आंखों की भाषा को पढ़कर डर जाती थी वह । नहीं, उन आंखों की भाषा ना मित्रता की होती थी, ना स्नेह या वात्सल्य की, असंतोष से भरी उन आंखों से अपनी नज़र मिला नहीं पाती थी मेधा । जैसे वो आंखें कहती हों, “तू गैर है तो गैर की तरह रह । आंगन की और झुक-झुक कर क्या देखती है । दो बैंगन या चार आलू काट रही हूं मैं । इससे मुझे छह लोगों का पेट भरना है । तू क्या सोचती है कि तुझे एक कप चाय पिलाऊंगीं । तीन दिन से शक्कर का दाना नहीं है मेरे घर में ।” अनेक बार शक्कर के लिए झगड़ा होता था गुरुजी के घर में । गुरुजी यदि कभी-कभार चाय मांग लेते तो लंबा प्ले रिकार्ड चालू हो जाता था । कभी कभी मेधा सोचती थी कि गुरुजी इस घर के लिए एक मॉडर्न पेंटिग से ज्यादा कुछ भी नहीं । ऐसा नहीं है तो और क्या है ? इतनी बक-झक और अशांति में भी अपनी साधना से जरा भी नहीं भटकते थे वो । गहरे अवांछित जंगली रंगों के भीतर वो बहुत अस्पष्ट भी हैं और गहरे भी । कराटे सीखाता गुरुजी का बड़ा लड़का, ससुराल से दुःखभरी चिट्ठी में गुरुजी की लड़की की खबर, वो सभी कुछ सुना था मेधा ने उस लंबे प्ले रिकार्ड में। कभी कभी दोयम दर्जे की बड़ी अपमानजनक बातें भी सुननी पड़ती थी गुरुजी को। जैसे “तुमसे शादी करके क्या मिला मुझे ? इससे अच्छा तो किसी यजमानी ब्राह्मण से भी शादी करती तो नारियल, केले और दक्षिणा से भूखे पेट तो ना सोना पड़ता ।” गुरुजी कभी इसका जवाब ना देते । जैसे वो एक शालीग्राम ही बन गए हैं । यहां रख दो तो ठीक और वहां रख दो तो भी ठीक । शक्कर चढ़ाओ तो भी ठीक, केला चढ़ाओ तो भी ठीक । मंदिर में रखो तो भी राजी और बक्से में रखो तो भी राज़ी । अपनी तुलना नहीं कर पाती थी मेधा उन संगीतज्ञों से जोकि टी.वी. या पत्र-पत्रिकाओं में अपने चित्र छपवाकर गर्वित होते थे । मंहगे बेल-बूटे का काम किया हुआ सलवार-कुर्ता, ड्राइंगरुम में फ्रेम किए हुए प्रमाणपत्र, सरस्वती की मूर्ति, यह सब क्या कैमरे के दायरे में आने के लिए घंटा भर पहले सजाए जाते थे । वहां न तो आदमी का चश्मा खोता है, न शक्कर खत्म होती है और न ही वहां आदमी शालीग्राम बनकर रह जाता है । गोरदा का इस घर में बेरोकटोक आना जाना था । वो मेधा की तरह गैर नहीं था । दीवार के सहारे साइकल को टिकाकर सीधे घुस जाता था वह घर में । क्यों काकी शक्कर नहीं है ? हा...हा..हा ....। वैसे चाय के लिए चीनी की क्या जरुरत है ? बिना दूध और शक्कर की चाय, असली चायनीज़ चाय अभी बन जाती है फटाफट। इतना कहकर ठहाका लगाकर हंसने लगता था वह। और सचमुच ही बिना चीनी और दूध की चाय लेकर बैठ जाता था वह काकी के पास। गोरदा बेलची बड़ा खुशमिज़ाज लड़का था । न जाने कितने दिनों से गुरुजी के नीरस जीवन वृक्ष पर थोड़ा-थोड़ा पानी सींचता आया था वह । वर्ना कब के मर चुके होते वो । गोरदा को देखने पर मेधा की हिम्मत बंधती थी । हां, कलकत्ता तो जाना चाहिए । ऐसा मौका हाथ से गंवानें का क्या फायदा । सबसे बड़ी बात यह थी कि गोरदा के आने पर पर गुरुजी का मकान इतना घुटन भरा महसूस नहीं होता था । बड़े हल्केपन का अहसास होता था तब उसे। हफ्ते भर में गोरदा सिर्फ़ दो बार ही आया था । हर बार वह उसे “सब ठीक हो जाएगा, चिंता मत कर” यही समझाता था । परंतु सप्ताह भर बात मेधा का गुरुजी के घर जाना एकदम नाटकीय अंदाज़ में बंद हो गया था । हांलांकि उस नाटक में मेधा की अपनी कोई भूमिका न थी । असली मुद्दा था गोरदा और गुरुजी की छोटी लड़की हेमंतिनी को लेकर । गुरुजी का कराटे सीखाने वाला लड़का यह बिल्कुल सहन नहीं करता था कि गोरदा उनके घर आए । न जाने क्यों उसका यह मानना था कि गोरदा हेमंतिनी के लिए ही गुरुजी के घर आता है। हेमा काले सांप सी मोटी मोटी दो चोटियों को छाती पर डालकर रखती थी । घाघरे के नीचे से उसके स्वस्थ और गोरे पांव मानो उसके संपूर्ण सौंदर्य की झलक दे जाते थे । मेधा सोचती कि इस उम्र में वो भी ऐसे ही गदराई हुई थी । लंबी चोटी, भरे हुए होंठ, हाथ, पैर, नाखून सब कुछ आकर्षक ललना की तरह मन में एक अद्भुीत अहंकार का संचार करते हुए मानो कहते थे, “ ऐ नगर के बांके जवानों ! देखो मेरे यह होंठ, गाल और ठोड़ी को । बस देखो ।” हेमंतिनी की जो उम्र थी उसे देखकर गोरदा का बेचैन हो जाना स्वभाविक था । परंतु उसे प्रेम कहा नहीं जा सकता था । सिर्फ़ यही कहा जा सकता था, “तु सिर्फ़ देख पर मुझे छुना नहीं। या फिर छु, सहला दे, पर कहीं मसल ना देना । मैं तो किसी राजकुमार के साथ जाऊंगी, तेरे साथ नहीं गोरदा” यह बात मानों हेमंतिनी के हंसी से झलकती थी । मेधा को कभी-कभी बड़ा आश्चर्य होता था । न जाने कितने युगों से उस एक ही ढर्रे में चली आ रही है नारी । उसका आवेदन, निवेदन, घृणा, प्रेम, प्रतीक्षा, कटाक्ष, चातुर्य, कपट, छलना, सभी के भीतर बस वही खोखलापन, “ तू चाहे कितना ही ऊंचा हो, तेरी बांहें चाहे जितने सागर अपने में समेट लें पुरुष ! याद रख, मेरे हाथ के इशारे पर तेरी नियती नाचती है।” असल में उस दिन वो घटना कैसे शुरु हुई यह पता नहीं था मेधा को । आंगन के उस पार से कराटे सीखा रहे गुरुजी के लड़के की यह चीख सुनाई दी थी_ तेरे हाथों को तोड़ कर ऐसा टांग दूंगा कि जिंदगी भर के लिए लूला बन जाएगा। तबला बजाना तो दूर, भीख मांगने के लिए भी हाथ नहीं उठा पाएगा। यह शोर-शराबा सुनकर गुरुजी बाहर निकल आए थे और उनके पीछे-पीछे मेधा भी । गुरुजी को देखकर हेमा भीतर चली गई थी और गोरदा बिना कुछ कहे बाहर । गुरुजी बिना कुछ कहे लौट आए थे, तानपुरा लेकर बैठ गए थे आंख बंद करके । मेधा को यह पता न था कि गुरुजी का कराटे सीखानेवाला लड़का उसके बारे में क्या सोचता है । परंतु गुरुजी उस दिन मेधा से खुद ही कह दिया था_“इतना परेशान होकर यहां आने की क्या जरुरत है, घर लौट जा, वहीं रियाज़ कर । पच्चीस तारीख से पहले मुझसे मिल लेना। गुरुजी की यह सीधी सपाट बात के बाद मेधा भला ओर क्या कहती ? खामोशी से गुरुजी के चरणस्पर्श कर, प्रणाम कर लौट आई थी वह । 6 सुबह से ही बड़ी घबराहट हो रही थी मेधा को । अचानक जैसे बीमार हो गई हो वह। सिर भारी हो रहा था उसका । उल्टियां भी आ रही थीं । हांलांकि वे जब तक हावड़ा स्टेशन पहुंचे तब तक सुबह हो चुकी थी । वहां से थिएटर रोड़ पहुंचने तक घड़ी साढ़े सात बजा रही थी । छोटे भाई ने उससे एक एन्लाजिन ले लेने को कहा । शायद रात को अच्छी नींद न आने से उसके सिर में दर्द हो रहा था । गुरुजी और गोरदा पास के कमरे में ठहरे थे । वे नहा-धो कर दक्षिणेश्वर के दर्शन के लिए चले गए । मेधा ने अपने सरदर्द के कारण जाने से मना कर दिया । छोटा भाई भी उनके साथ मां काली के दर्शन के लिए चला गया । सभी चले जाने के बाद मेधा अपनी नोटबुक खोलकर बैठ गई । राग मधुकोश । मानो गला साथ ही देना न चाहता हो । मेधा ने एक विलंबित ताल में ‘प्रभु रंग बिना’ गाना शुरु किया राग भोपाली में । परंतु उसे पूरा आलाप याद ही नहीं आया । उसके बाद उसने खयाल गाया “मोर मन भाये’ राग सरस्वती में एक विलंबित ताल के साथ। परंतु हारमोनियम के साथ उसका स्वर, सरगम सबकुछ मानो बेसुरा जान पड़ा । धत् ! गोरदा अगर अभी न जाता तो क्या बिगड़ जाता ! पता नहीं कब लौटेंगें ये लोग दक्षिणेश्वर से । उसे बड़ा नर्वसनेस लग रहा था । बहुत दिन पहले उसने ‘मारु बेहाग’ सीखा था । एक विलंबित ताल में था वो ‘रसिया आए ना’ गीत । पर उसे लगा कि वो इस गीत का सुर को पकड़ नहीं पा रही है । लगता है जैसे कई दिनों से रियाज़ ना करने के कारण उसका गला बेसुरा हो गया है । वो अपने पर्स से कुछ दालचीनी के टूकड़े निकाल कर चबाती है । मुंह में उसका रस घुल गया था । मेधा को याद आया कि कैसे एक बार छोटे भाई ने उसे घोड़े को खिलाने वाला बच लाकर दे दिया था । कैसा अजब साबुन की तरह स्वाद था उसका । उस वक्त संगीत सीखाने वाले गुरुजी कहते थे _देखो अगर अपना गला हमेशा साफ़ रखना चाहती हो तो भोर से उठकर नीचे स्वर में आ...आ... का अभ्यास करना, धीरे धीरे स्वर ऊंचा करने की कोशिश करना । इसके अलावा मुंह से जोर जोर से हवा भरना जैसे सांस ले रही हो । खट्टी चीजें, दही आदि बिल्कुल मत खाना । बचपन की बातें हैं वे सब । बारहखड़ी सीखने के दिन । मेधा सोच रही थी, उन दिनों की निष्ठा काश वो आज भी रख पाती। उस दिन सांझ होते होते हल्का बुखार चढ़ आया था मेधा को। उस दिन प्रदर्शन भी कुछ अच्छा नहीं रहा था उसका । शुरुआत तो उसने राग मालकोश से की थी परंतु दूसरे गीत के शुरु करते ही उसे एहसास हुआ कि उसने गलत खयाल पकड़ लिया है । शुरु से विलंबित खयाल उसे लेना नहीं चाहिए था । ज्यादा रियाज़ भी वो कर नहीं पाई थी । मेधा श्रोताओं की ओर देखकर अनमनी सी हो गई । हालांकि भीड़ और रोशनी का चकाचौंध नहीं था यहां। फिर भी मेधा जानती थी कि यहां जो लोग बैठे है वो कोई नौटंकी देखने नहीं आए हैं । यह तो साफ़ था कि ये साधारण श्रोता नहीं हैं । यहां कमोवेश सभी संगीत-प्रेमी हैं और सुर-ताल का थोड़ा-बहुत ज्ञान तो होगा ही इनको । उसे बचपन में टाऊनहाल में जनवरी छब्बीस को गाया गीत “ऐ मेरे वतन के लोगों” याद आ गया । नीचे स्वर से ऊंचे स्वर में जाते हुए अचानक लय टूट गया था उसका । फि़र भी दूसरा स्थान मिला था उसे। छोटी थी शायद इसलिए उसकी गलगी को इतनी गंभीरता से नहीं लिया था जजों नें । पर यहां? गाने के बीच में ही वो समझ गई थी कि ऋषभ ने स्वर को कमजोर कर दिया था । बीच में एक बार गा-पा-रे-गा-रे-सा-रे गाकर वो समझ गई थी कि उससे बड़ी गलती हो गई है । वो राग ‘भोपाली’ को छोड़कर ‘शंकरा’ में गाने लगी है । गोरदा का हाथ तबले पर रुक गया था क्षणभर के लिए । सरोदवादक की भौंहें तन गई थी उसे देखकर । ओड़िशा से गए अनिरुद्ध और वो दोनों ही अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए थे । अनिरुद्ध ने ‘कौशिक कानाड़ा’ राग में खयाल गाया था । सप्तक के मध्य पंचम से ऊपर के स्वरों में अचानक उसका गला कर्कश हो गया था और सार विस्तार टूट गया था उसका। लोग धीरे-धीरे उठकर बाहर जाने लगे थे । शायद अनिरुद्ध ने यह भांप लिया था और ‘कौशिक कानाड़ा’ के नि-मा-रे-सा के बदले मालकोश का मा-नि-सा-पा का प्रयोग करने लगा । मेधा को न जाने क्यों ऐसा लगता था कि अनिरुद्ध से उसके विचार मिलते हैं और वह उसका दोस्त है । अब तक खुद को धिक्कारते उसके मन को थोड़ी सांत्वना मिली थी । अगर अनिरुद्ध यहां अच्छा गाता तो शायद यह अनुभूति नहीं होती उसे । इससे पहले अनिरुद्ध से कोई परिचय नहीं था उसका । यहीं मुलाकात हुई उससे । सम्मेलन में इतने सारे स्मार्ट गैर-ओड़िया कलाकारों के बीच वे कैसे फीके लग रहे थे । युवा कलाकार के नाम पर आये हुए अधिकांश कलाकारों की उम्र चालीस के आसपास थी । मंच से उतरकर अनिरुद्ध सीधे उसके पास आया था । थोड़ी-बहुत बातें हुईं । औपचारिक हंसी के बाद एक दूसरे के प्रति नीरव संवेदना जताई थी उन दोनों ने । बड़ सुंदर लड़का था अनिरुद्ध । मेधा की उम्र का ही रहा होगा । छह फुट से भी कुछ ऊंचा कद । स्वस्थ देह । दो आकर्षक आंखें । उसके अलावा ऐसा लगता था कि उसका सारा सौंदर्य उसके नाक में ही सिमट गया हो । पहली नज़र में ही कोई कह सकता था कि लड़का खुबसूरत है । उन्होंने साथ में ज्यादा वक्त गुज़ारा नहीं था। उस कम वक्त में ही उन्होंने अपनी अपनी नसों में दोस्ती का भाव खींच लिया था । मंच से उतरकर गुरुजी को अपने पास नहीं पाया था मेधा ने । घंटे देढ़ घंटे के बाद वे लौटे थे हाल में । आकर उन्होंने मेधा से कहा था, “यह तूने क्या किया?” इसका भला क्या जबाव देती मेधा । उसे पता था कि उसने क्या किया है । गुरुजी ने कहा_ भोपाली की तरह एक उपेक्षित राग को चुनकर गलती की तुने । उसके अलावा विस्तार, छंद, बोल, बीट, सरगम और तान, हर क्षेत्र में तुझे और भी ज्यादा रियाज़ की जरुरत है । अनिरुद्ध से भी गुरुजी ने यह कहा था कि तुमसे बहुत सी गलतियां हो रही हैं । ताल और लय के लिए जितने ज्ञान की आवश्यकता होती है संगीत में उससे ज्यादा जरुरी होता है उन्हें पहचानना और उनसे प्रेम करना । तुम उनसे प्रेम नहीं कर पाये हो ।” पूरे रास्ते भर काफ़ी उदास लग रहे थे गुरुजी । मेधा परंतु अपना दुःख भूल चुकी थी । बल्कि यह सोच रही थी कि गुरु और पिता में भला क्या फर्क है । संतान या शिष्य चाहे जितनी भी तरक्की कर लें पर यह कभी संतुष्ट नहीं होते । गुरुजी के साथ रास्ते में उसने बहुत सी इधर-उधर की बातें करनीं चाहीं । अपने जंगल से घिरे शहर में भी गुरुजी को आमंत्रित किया था उसने, ताकि वो भी देख लें कि वो कैसे प्रकृति की गोद में रहती हैं । पर उनकी कहीं जाने की इच्छा न थी । मेधा ने सोचा कि बूढ़े होने पर लोग शायद एक कार्टून की तरह हो जाते हैं । अरे ना हुआ प्रदर्शन अच्छा तो ना सही । कौन सा भूचाल आ गया । सभी अगर अच्छा गाने लगें तो फिर बुरा गाएगा कौन ? गुरुजी के मुंह को वो जितनी बार देखती हर बार वो उसे एक कार्टून की तरह ही लगते । बाद में सोचा, छीः गुरु को ही कार्टून सोच लिया । गुरु-ब्रह्मा, गुरु-बिष्णु, गुरु साक्षात-परम-ब्रह्म बाला श्लोक याद हो आया । उसी क्षण वो ट्रेन की खिड़की से रास्ते, घाट, पेड़ और खेतों में मन को लगाने लगी । मेधा फिर से अपने जंगल से घिरे शहर को लौट आई थी । वो एक सुदुरवर्ती शहर था । वहां जाने के रास्ते में पहले पांच सात किलोमीटर तक सरकार द्वारा लगाया गया कुत्रिम जंगल पड़ता था । उनका क्वार्टर शहर के अंतिम कोने में जंगल से सटकर था । जंगल का चेहरा भीड़-भडक्के से एकदम अलग होता है । उसकी खुशबू भी अलग होती है । पहली बार जब वो यहां आई थी तो बड़ी तकलीफ हुई थी उसे कि न जाने यह कहां आ गई वो । यहां से दुनिया न जाने कितनी दूर है । दूसरी बार जब वो यहां आई तो काफी़ परिचित लगा था उसे यह जंगल से घिरा शहर । वो सोच रही थी कि काश यह बस खराब हो जाती तो वो इस जंगल में उतरकर पास बह रहे झरने के मोड़ पर जाकर कुछ देर के लिए बैठ जाती । घर जाकर उसने देखा कि साहब दौरे पर गये हुए हैं । बूढ़े फॉरेस्टर को रखवाली के छोड़ गए थे भास्कर । बीबीजी, अगर तुम्हारे आने की बात पता होती तो मैं दो दिन पहले ही पूरे घर की साफ़-सफाई कर देता, कहा था बूढ़े ने । पर तुम्हारे साहब को तो पता था ना कि आज मैं आ रही हूं, मेधा ने कहा था । पर मुझसे तो उन्होंने कुछ नहीं कहा । आज सुबह घर पर आकर मुझसे कहा कि मैं आज दौरे पर जा रहा हूं । घर पर रहना, बीबीजी आ रही हैं । ये लो, चाबी रखो । अफीम से जीर्ण हो चुके शरीरवाले फॉरेस्ट गार्ड ने जेब से चाबी निकाल कर मेधा को दे दी और कहने लगा, अरे, मैं तो आज सुबह ही आ जाता । एक गाय काजीहौस में बंद थी । उसी को छुड़वाकर आ रहा हूं । क्या जमाना आ गया है, गौमाता और उसे भी जेल । घर खोलते ही मेधा को एहसास हुआ कि एक औरत के रुप में उसका गृहस्थी और घर से बड़ा घनिष्ठ संबंध है । सिर पर एक तौलिया बांध और पल्लु को कमर में खोंस एक झाड़ू लेकर वो तैयार हो गई । बूढ़े गार्ड ने कहा था _तुम रहने दो बीबीजी, थक गई हो । मैं सफ़ाई कर दूंगा । नहीं, रहने दो, यह सब मेरा काम है । तुम अब जाओ, शाम को आना, कहा था मेधा ने । मकड़ी के जाले, चिड़ियों और चूहों की गंदगी, सब कुछ साफ़ किया उसने । सबसे अजीब हालत थी रसोईघर की । सिंक में अंडे के छिलकों का ढेर लगा था, फर्श पर इधर-उधर ब्रेड और नूडल्स के खाली पैकेट्स बिखरे पड़े थे । कागज का एक छोटा बक्स रखा हुआ था आले में । सूप के दो पैकेट्स को छोड़कर बाकि सबकुछ भरा हुआ था उस बक्से में । स्टोररुम के पास कतार बांध कर चाय के झूठे कप पड़े हुए थे । मेधा को मन ही मन हंसी आ रही थी । आखिर कितने दिन रह गई वो भास्कर को इस हालत में छोड़कर ! बीस-पच्चीस दिन ही हुए होंगें शायद । इतने दिनों तक बेचारे भास्कर को घर में चावल-दाल के दो कौर नसीब न हुए होंगें । शाम को घर लौटा था भास्कर । तब तक उनका मकान दुल्हन की तरह सज चुका था । जब भास्कर आया उस वक्त मेधा बगीचे में सूखी फूल-पत्तियों को कैंची से कतर रही थी। मेधा को देखकर वो ऐसे हंसा मानो बहुत खुश हो । जैसे बहुत दिनों बाद ऑक्सिजन से भरी सांस वो सीने में खींच पाया है आज । भास्कर ने कहा था__अच्छा नहीं लगता तुम्हारे बिना । तुम्हारी भी याद आती थी मुझे । कैसा रहा तुम्हारा प्रोग्राम ? उफ्फ......कहा था मेधा ने मतलब ? यह सब साधना की चीजें हैं माई हाइनेस । फिर भी..? जीरो, नहीं बल्कि माइनस मार्कींग ही कह सकते हो । तुम्हारे बिना घर, घर सा नहीं लग रहा था । पहले अकेले रहने पर एहसास नहीं होता था । तकलीफ नहीं होती थी । कहीं से भी जरा सा खाकर घर पर आकर सोने की ही चिंता रहती थी । पर अब काम खत्म कर घर लौटने की आदत हो गई है । पर घर लौट कर भी कोई शुकुन नहीं । कौन है घर पर जो घर आउं । खाने को दौड़ता है घर । पहले बारिक बाबु, सामल बाबु, इन लोगों के साथ गप्पें लगाकर वक्त कट जाता था । आजकल उनके ग्रुप में कुछ मन नहीं लगता । तुम्हे कहीं ओर जाने की जरुरत नहीं है, चुपचाप घर पर बैठो । हां, घर पर बैठो और फ्रेम में बंधी तस्वीर बन जाओ । तुम चाहे कुछ भी कहो, कहा था भास्कर ने । तो क्या मैं गलत कह रही हूं, तुम जंगल, ऑफिस, हेड-ऑफिस के चक्कर लगाते रहोगे और मैं यहां चौखट पर खड़ी होकर तुम्हारी राह ताकती रहूंगी । मेधा के व्यंग्य और दुःख को भास्कर ने समझा या नहीं यह तो नहीं पता पर उसने कहा था__यहां एक घटना घट गई है इस बीच में । मतलब ? यह पास की पी.डब्लू.डी. कालोनी में सामनेवाले क्वार्टर में रहनेवाली एक औरत किसी दूसरे के घरवाले के साथ फरार हो गई है । दोनों के ही दो-दो बच्चे हैं । अरे वाह, बड़ी मजेदार बात बताई तुमने, कहा था मेधा ने । तुमको यह मजेदार लग रहा है । छीः छीः_ कहा था भास्कर ने । छीः छीः क्यों ? दोनों में प्रेम हो गया, तो क्या किया जा सकता था ? पूरे बहस के मूड़ में थी मेधा । क्या बचकानी बातें कर रही हो ! चीढ़ गया था भास्कर । ऐसे भला कैसा प्रेम हो हुआ जा रहा है । समाज में उठना-बैठना और जिम्मेदारी नामक की भी कोई चीज़ होती है । अपने बच्चों, पति और पत्नी के बारे कुछ सुझा नहीं उन्हें । दोनों में प्रेम हो गया, तो वे क्या कर सकते थे, बताओ न ? संभाल लेते खुद को ? कैसे, क्या मन को बेडियों से बांध कर ? नाराज हो गया था भास्कर उसकी ऐसी बातों से। तुम्हारे अलावा और कोई भी इस घटना की तरफ़दारी नहीं कर रहा है । लगता है कलकत्ते जाकर बदल गई हो तुम । आखिर तुम कहना क्या चाहते हो ? इस बार गुस्सा करने की मेधा की बारी थी । कुछ कहना नहीं चाहता । बस यही कि, वहां कुछ हो तो नहीं गया है तुम्हें ? मेधा खुद को रोक ना पाई ? रोए या गुस्सा करे । मारे या उठ जाए, कुछ समझ में नहीं आया उसके । वो उठकर चली गई। दोनों ने पूरी शाम बात तक नहीं की थी एक दूसरे से । मेधा चुपचाप नाश्ता रखकर चली गई थी । कलकत्ते से भास्कर के लिए लाया कुर्ता-पजामा भी उसने चुपचाप सामने लाकर रख दिया उसके । यह नहीं कहा कि पहनकर नाप देख लो । भास्कर ने अपने जूते निकाल कर पालिश किए । ट्रंक खोलकर पुरानी किताबों को सहेजा था । रात को दोनों एक दूसरे से मुंह फेरकर सोए । 7 जिस दिन पडोसन ने आकर मेधा के पेट पर हाथ फेरा और बड़ी अर्थपूर्ण हंसी के साथ पूछा, कौन सा महीना चल रहा है ? असल में उसी दिन मेधा ने अपने अनमने स्त्रीत्व में मां के भाव को जन्म दिया । हालांकि इसका जबाव देते वक्त बड़े आश्चर्य से उसने पूछा था : मतलब ? यह बात क्या छिपाने से छिपती है ? कहा था पडोसन ने, __ऐसे क्यों बनती हो जैसे कुछ पता ही न हो । यह तो खुशी की बात है। नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है_ मेधा ने पडोसन से कहा था। पडोसन के चले जाने के बाद मेधा ने सोचा था कि यह एक आश्चर्य की बात है कि वो आज़ तक अपने मातृत्व के बारे में सोच नहीं पाई । शायद प्रकृति अपने नियम मेधा पर लागू न कर पाने के कारण ही मेधा को इस दिशा में सोचने का मौका नहीं मिला । हालांकि मां ने उससे इस बारे में एक बार पूछा था परंतु मेधा ने तब इस बारे गंभीरता से सोचा ही न था । मेधा आईने के सामने जाकर खड़ी हो गई । कभी दुबली-पतली रही इस लड़की के देह गदरा आया है, रंग निखर गया है परंतु मातृत्व ? एक नये अभाव का बोध उसके सामने मुंह बाए खड़ा था । हां, नये अभाव का बोध । पता नहीं आजतक क्यों उसे इसका एहसास नहीं हुआ था ? उसके भीतर मातृत्व की भावना जरा कम है या इस मामले में वो अनमनी रही है । उस दिन भास्कर देर रात को लौटा था । बहुत थका हुआ । धूप से झुलसा हुआ । नहाकर आकर कुछ खाने से मना कर दिया था उसने । मेधा को उससे पैर या सिर दबा देने के लिए पूछना चाहिए था । वो सब न करके मेधा ने पूछा था : तुम्हारा सिर दर्द कर रहा है क्या ? एनालजेसिक दूं क्या ? रहने दो,__कहा था भास्कर । मेधा ने कोई दूसरी बात ना करके सीधे ही सवाल दाग दिया: हमारे कोई बाल-बच्चे क्यों नहीं हैं ? भास्कर को इतनी थकान में भी हंसी आ गई । क्या तुम कोई छोटी बच्ची हो ? अभी हमारी शादी को साल भर भी नहीं हुआ है । तो क्या साल भर के अंदर मातृत्व का अहसास नहीं किया जा सकता । आई मिन.....। मेधा सो जाओ, कहा था भास्कर । ईश्वर ने तुम्हे जीवन का आनंद लेने का मौका दिया है, यही सोच लो । जीवना आनंद कब ले पाई हूं मैं ? जहां भी नज़र दौड़ाओ बस चारो दिशाओं में फैला हुआ जंगल । बस घना और घना जंगल। और उस घने जंगल के भीतर तुम एक असुर की गुंफा में बंद राजकुमारी हो । कहा था भास्कर ने । मैंने तुम्हें कब असुर कहा ? तुम भला क्यों असुर होने लगे । मैं बाघसुंदरी । बाघ, बाघ और सुंदर । क्यों बाघ सुंदर नहीं होते हैं क्या ? भास्कर चीढ़ गया_ “देखो ऐसे भी मेरा सिर दुख रहा है, और तुम ज्यादा मेरा दिमाग खाने की कोशिश न करो । आज़ फॉरेस्ट गार्ड बाघसुंदरी की कहानी कह रहा था । कहा था मेधा ने । लगता है इस बूढ़े ने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है । सिर से मेरा मतलब मेरे दिमाग से था । रोज अगर ऐसे ही मेरा दिमाग खाती रही तो इसे पूरा खाने में कितने दिन लगेगें तुम्हें । भास्कर अचानक बिस्तर से उठकर खड़ा हो गया । उसने मेधा को उस नज़र से देखा जैसे पहले कभी देखा न हो और पूछा__तुम्हें क्या हुआ है मेधा ? तुम ठीक तो हो ना ? खुलकर बताती क्यों नहीं कि तुम्हें क्या हुआ है ? जब तुम कहोगी मैं तुम्हें आजाद कर दूंगा । तुम जो चाहती हो वही करो पर ऐसी बातें तो मत करो । भास्कर की ऐसी बातें सुनकर उसके प्रति मेधा के मन में बड़ा मोह आ जाता था । सोचती थी, भास्कर कितना अच्छा लड़का है, उसे एक अच्छी लड़की से शादी करनी चाहिए थी । नरम दिल की लड़की से । हर लम्हें को जो अपनी इच्छा-अनिच्छा के तराजू से न तोलती हो या फिर लगातार अपनी पहचान को खोजने की तड़प ना हो जिसके भीतर । और अगर मेधा को ऐसा पति मिलता तो कैसा रहता । जिसकी हर नजर चाबुक और जुबान तीखी छूरी का आतंक पैदा करती होती । यह सोचकर ही मेधा खिलखिलाकर हंस पड़ी । क्या हुआ मेधा ? पूछा था भास्कर ने । इतनी जोर से तुम क्यों हंसी ? नहीं, कोई बात नहीं । सोच रही थी कि मुझे अगर सर्कस के रिंग मास्टर जैसा पति मिलता तो कैसा रहता । लगता तुम्हारे सिर से वो बाघ वाला भूत उतरा नहीं है अभी तक ? प्लीज़, मेधा मेरा सिर में बहुत दर्द है, तुम अपना पागलपन बंद भी करो । मेधा को लगा कि अगर इससे आगे भास्कर और कुछ कहता है तो वो टूटकर कर बिखर जाएगी । अपनी गोद में लेकर भास्कर के सिर को सहला दिया उसने । जैसे भास्कर कोई छोटा बच्चा हो । निष्पाप । इस घटना के दो दिन बाद भास्कर ने उसे एक ऐसी जगह ले गया था जिसे राजा के बेटे की कहानी किताब में गहन वनांचल कहा जा सकता है । इससे पहले भास्कर उसे कभी इतने घने जंगल में लेकर नहीं आया था । यद्यपि उसकी नौकरी इन जंगलों में सिमटी हुई थी फिर भी वे अधिकतर पास के शहर के होटलों में खाने के लिए या फिर खरीददारी के लिए जाया करते । यह पहली बार था जब भास्कर उसे ऐसे जंगल में लेकर आया था । पथरीले और संकरे रास्ते में चलते हुए उनकी जीप हिचकोले खाने लगती । इस जंगली रास्ते के किनारे कई प्रकार के पक्षी और इस डाल से उस डाल को कूदते बंदर नजर आ जाते थे । एक खरगोश ने भी रास्ता काट लिया था उनकी जीप का । बीच बीच में लहराती जीप शरीर से टकराती थी । अचानक मेधा को रास्ते के बगल में कोई पेड़ दिखा । उसने ड्राइवर से कहा कि जीप रोके, वो कुरेंई फूल तोड़ना चाहती है । ड्राइवर ने कहा था : मैडम, पहाड़ी के ऊपर गेस्ट हाऊस के पास ऐसे बहुत से फूल हैं । रास्ते के हर मोड़ पर ऐसा लगता था मानो आगे रास्ता बंद है । अभी ओर कितना रास्ता है ? ड्राइवर से पूछा था मेधा ने । ज्यादा से ज्यादा पंद्रह-बीस मिनट का रास्ता ओर होगा, कहा था ड्राइवर ने । सर, क्या रास्ते से चौकीदार को साथ लेकर चलना है ? भास्कर से पूछा था ड्राइवर ने । चौकीदार को साथ लेकर चलने की क्या जरुरत है ? एक-आध घंटे में तो लौट आना ही है । हां, तुम उससे चाबी जरुर ले आओ । एक रात इस जंगल में काटने की इच्छा हो रही है, कहा था मेधा ने । क्या इस जंगल में बाघ हैं भास्कर ? हां, हैं । तो आज यहीं रुक जाते तो अच्छा होता न । तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है । ये क्या कोई नेशनल हाईवे पर बना डाक-बंगला है, सांझ होते होते हाथियों का राज होता है यहां । तब तो और भी अच्छा होगा, कहा था मेधा ने । ऐसे एडवेंचर की कोई जरुरत नहीं है । पहले से तय होता तो कुछ खाना पकाकर ले आते और यहां बैठकर खाना खाते और फिर एक-दो घंटे के बाद लौट जाते । कहा था भास्कर ने । ड्राइवर ने कहा_ एक काम कर सकते हैं सर । साथ में चौकीदार को ले चलते हैं । आप लोग बंगले में नहा-धोकर तैयार होंगें तब तक मैं और चौकीदार नीचे गांव से कुछ दाल-चावल ले आते हैं। खाना खाकर यहां से चार बजे़ तक निकलने पर भी कोई दिक्कत नहीं है । अब यहां खाना पकाने-वकाने का झमेला मत करो,__ थोड़ा झुंझला उठा था भास्कर । आश्चर्य हुआ था मेधा को यह देखकर कि इतने धने जंगल को पार कर इंसानों की को बस्ती देखकर और इस बात की कल्पना भी नहीं कि जा सकती कि यहां पोड़ू खेती भी की गई होगी । सारी दूनिया से कटकर यह लोग ऐसे जंगल में आखिर रहते कैसे हैं भला? ड्राइवर गाड़ी रोककर चौकीदार के घर चला गया । पांच मिनट बाद शर्ट और धोती पहने हुए एक आदमी ने आकर भास्कर को सलाम किया । हुजूर, चावल, दाल, मुर्गा, हल्दी तो मिल जाएगा पर तेल-मसाला नहीं मिल सकता । मेधा ने पूछा__क्यों, तुम लोग बिना तेल के सब्जी पकाते हो । नहीं हुजूर । इतने सलीके से पकाकर खाने का सामर्थ्य किसके पास है यहां ? सुबह जिसे थोड़ा-बहुत पकाना-वकाना हो तो वो करंज या कुसुम के तेल से काम चला लेता है । हुजुर ! आप उस तेल में पका खा नहीं पाएंगें__चौकीदार की बातों में सच्चाई छिपी हुई थी । मेधा को लगा उसे इस तरह से नहीं पूछना चाहिए था । जीप की पिछली सीट पर चौकीदार बैठा था । कुछ देर की पहाड़ की चढ़ाई के बाद वे लोग डाकबंगले में पहुंचे थे । दरवाजे का ताला खोल दिया था ड्राइवर ने और चौकीदार के साथ पानी लाने के लिए बाल्टी लेकर चला गया था वो । मेधा ने भास्कर के साथ घूम-घूम कर पूरे डाकबंगले को देखा था । सामने के बरामदे में खड़े होने पर नीचे का गांव और पहाड़ को काटकर की गई खेती दिखाई देती थी । डाकबंगले के पश्चिम ओर एक अद्भुत नज़ारा देखा था मेधा ने । उनके सामने एक और पहाड़ सीना ताने खड़ा था । वो इतना करीब था मानो हाथ बढ़ाकर छुआ जा सकता हो । दोनों पहाड़ों के बीच में एक पहाड़ी दरिया बह रहा था । एक ऐसा नज़ारा यहां उसका इंतजार कर रहा है, यह उसने कभी सोचा न था । भास्कर ने उससे कहा था कि क्या वो इस जगह की खासियत को बता सकती है । यहां तुम ऊंची आवाज़ में कुछ कहो तो दो मिनट बाद वही बात तुम्हारे पास लौट आएगी । सचमुच ? कुछ कहकर देखो । मेधा मुंह से दोनों हथेलियों को सटाकर पुकारी : हे...s..s..s । दो मिनट तक जैसे माहोल में खामोशी छा गई । उसके बाद पहाड़ से जवाब आया हे...हे....हे....। फिर से अपनी हथेली मुंह से सटाकर मेधा ने पुकारा “हे बाघसुंदरी” । तुरंत भास्कर ने उसके मुंह को अपनी हथेली से दबा लिया । यह क्या हो रहा है । ड्राइवर और चौकीदार यहीं हैं, यह बात कैसे भूल जाती हो तुम । दो मिनट बाद भास्कर को और भी अधिक शर्मिंदा करने के लिए पहाड़ ने आवाज़ लौटाई : हे बाघसुंदरी, हे बाघसुंदरी, हे बाघसुंदरी । उस दिन डाकबंगले में रहकर खाना तो दूर की बात है एक कप चाय भी नसीब नहीं हुई थी उन्हें । वे लौट आये थे । घर लौटने से पहले भास्कर ने बाहर से कुछ खाकर चलने की बात कही । वो घर लौटकर पकाने का झंझट नहीं करना चाहता था । उस दिन बड़ा उदास रहा था मेधा का मन । उसके इतने पास एक ऐसा खुबसूरत जंगल है पर वो आंखभर देख भी नहीं पाई थी उसके सौंदर्य को । यह देखो बाम्बेगेट, यह देखो ताजमहल, यह देखो हावड़ा पुल, बचपन में बायस्कोप वाले के बायस्कोप में झलक भर देखने का अनुभव रहा था जंगल के उन दृश्यों का । इतनी उदासी में भी मेधा यह सोच रही थी कि भास्कर आखिर उसको जंगल लेकर क्यों गया था ? क्या यह बात वो भास्कर से पूछे ? पर भास्कर से पूछने से पहले उसे याद आता है कि दो दिन पहले भास्कर ने उससे कहा था__घर में बैठकर तुम बहुत बोर हो जाती होगी मेधा । तुम्हें एक बढ़िया जगह घुमाने ले चलुंगां । भास्कर की बात याद आते ही उसे अपनी नादानी पर हंसी भी आई थी । (8) यह अनिरुद्ध कौन है ? पूछा था भास्कर ने। हाथ में उसके एक निमंत्रण पत्र था । दिसम्बर की दुपहरी में बरामदे की गुनगुनी धूप में बैठकर स्वेटर बुन रही थी मेधा । “अनिरुद्ध” ? नाम तो पहचाना लग रहा है ।” “देखें” कहकर उसने भास्कर के हाथ से कार्ड ले लिया था । कार्ड उसी के नाम पर था । खोलकर पढते हुए कहने लगी “ओह अनिरुद्ध, अरे वही लड़का जो कलकत्ता गया था युवा कलाकारों के सम्मेलन में । ओड़िशा से हम दो लोग ही गए थे । अनिरुद्ध और मैं । उस दिन बिल्कुल अच्छा नहीं गाया था उसनें, खैर, तो शादी हो रही है उसकी । लगभग दो साल हो गये थे कलकत्ते में हुए संगीत सम्मेलन को । उस लड़के का चेहरा भी कुछ अस्पष्ट होने लगा था स्मृति से । उसके अलावा भास्कर की दुनिया भी कोई छोटी नहीं थी उसके लिए । भाई को पढ़ाना, बहन की शादी, सबसे बढ़कर मेधा की गूंगी-बहरी बहन का उद्धार कर उसके भविष्य की चिंता करने जैसे कामों में लगी हुई थी उस वक्त मेधा । बढ़ती उम्र के साथ दिन व दिन कमजोर होते भास्कर के पिता की जिम्मेदारी और बारंबार गर्भवती होने के बावजूद किसी घास-फूस के कच्चे मकान की तरह उसके गर्भ का गिर जाने जैसी घटना ने मेधा को बहुत परिपक्व बना दिया था । पहले वो सोचती थी कि कैसे अपना जीवन एक ही व्यक्ति के साथ बिताएगी वह । बोर नहीं हो जाएगी इससे । पर आजकल वो ऐसा नहीं सोचती । इंसान से ज्यादा लचीला प्राणी भला और कौन है ? जिस सांचे में ढालो, उसी में ढल जाता है वह । संगीत की दुनिया में शोहरत कमाने की चाहत रखने वाली एक लड़की अब हर हफ्ते अपने श्वसुर को अस्पताल लेकर जाती है । रक्तचाप की जांच करवाती है । महीने में एक बार ब्लड़ शुगर कि भी । आखों में मोतियाबिंद का परदा चढ़ जाने और इस बजहा से कुछ साफ़ दिखाई नहीं पड़ने के कारण कुछ चिड़चिडे़ से रहते थे श्वसुरजी पर ऑपरेशन के लिए राजी नहीं होते थे वो। जब तक वो घर पर रहते अलग ही अनुशासन चलता था घर में । रात सात-आठ बजे के बाद टी.वी. बंद हो जाता था । सुबह दस बजे तक लंच और दो बजे चाय । बुढ़ऊ नौ बज़े तक सो जाते थे और सोते हुए रह रह कर `हरि हे मधुसूदन’ का जाप करते रहते थे । यह तो स्पष्ट था कि नींद नहीं आती है उन्हें । फिर भी हाथ टी.वी. की स्विच की ओर बढ़ नहीं पाते थे मेधा के । इतनी जल्दी सोने की आदत नहीं थी उन लोगों को । पर मेधा किसी प्रकार की मीन-मेख नहीं करती थी । बुढ़ऊ की दो आदतें मेधा को बिल्कुल पसंद नहीं आती थीं । कभी कभी वो इन बातों को मन में दबा न पाकर विरोध करती थी । एक चीज़ जिससे मेधा को सख्त नफरत थी वो थी बुढ़ऊ की यहां-वहां पड़ी पीली बलगम । कभी बेसिन में तो कभी रसोई की सींक में । कभी बाथरुम में तो कभी टायलेट में । अपने घर में किसीको इस तरह गंदगी फैलाते नहीं देखा था मेधा ने । बचपन से बहुत साफ़-सुथरी रहती थी वह । साफ़-सुथरी क्या, यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि सफाई को लेकर एक तरह की सनक थी उसके दिमाग में, । पीली बलगम देखने पर कै आ जाती थी उसे । उसके सश्वुर की जो दूसरी गंदी आदत थी वो थी उनके मन का अहंकार । और वो भी सिर्फ़ अपने बच्चों के लिए । उनका मानना था कि उनके बच्चों से होनहार कोई दूसरा हो ही नहीं सकता । बुढ़ऊ जब अपने बच्चों की बातें करते तो लगता मानो किसी दूसरी दूनिया में हैं । “मजाल है किसी की मेरे छोटे बेटे के बारे में शिकायत कर दे कि वह गांव के लड़कों के साथ खेलता है ! वह एक अच्छा लड़का है और उसकी पढ़ाई भी अच्छी है । धान की कटाई के वक्त भी जब वो खेतों में जाता था तो बगल में अपनी पढ़ाई की किताब दबा लेता था । चैत के महीने में रात के बारह बारह बजे़ तक पढ़ता रहता था । पर मेधा इन खेत, धान की कटाई या फिर चैत का महीना, किसी भी चीज़ का एहसास नहीं कर पाती थी । उसने कभी अपने जीवन में न तो कभी धान के पौधों को हाथ में लेकर देखा था और न ही उसने कभी ओड़िया पंचागं में आनेवाली पूर्णिमा, संक्रांति या तिथि-वार में अपना दिमाग खपाया था । बल्कि उसके जीवन में क्रिसमस, पूज़ा और गरमी की छुट्टी के कुछ मायने थे । ना ही उसके मायके में इतने वार-त्यौहांर या व्रत-उपवास होते थे । मैट्रिक में सात सौ पचास में से छह सौ सत्तर नंबर लाए थे निराकार ने । गणित में सौ में से अठानवे । मैं कहता था बेटे को इंजीनीयरिंग पढ़ाएंगें । तेरी सासुजी ने कहा कि मेरा बेटा तो डाक्टर ही बनेगा । अच्छी बात है, कुछ भी बने । मिनी को तुम गांव की ही लड़की समझोगी । पर मवेशियों का दाना-पानी करना, धान सिझाना, कंडे थापना जैसे न जाने कितने काम करती थी वो, फिर भी पढ़ाई उसकी एकदम फर्स्ट क्लास । वैसे पढ़ती कम थी पर जो पढ़ लेती है वो दिमाग में बैठ जाता है । मैंने कहा उसे भी जाने दो शहर में पढ़ने के लिए, क्यों उसके मन में दुःख होगा कि बेटों को पढ़ाया पर मुझे नहीं पढ़ाया बाबा ने । शहर की वूमन्स कॉलेज में इकोनोमिक्स आनर्स से पढ़ाई की थी उसने ।” मिनी और मेधा एक ही बैच की थीं । बाहर से बड़ी शांत लगने पर भी बड़ी चुप-शैतान थी वह । जब भी मायके आती थी, दूनिया भर के सामान इकट्ठा न कर लेने तक जाती नहीं थी । मुंह खोलकर मेधा या भास्कर से कुछ नहीं मांगेगी पर अपनी जरुरतों की लिस्ट मां को दे देगी और मां जिद करके उसके लिए वो सारी चीजें इंतजाम करती थीं । श्वसुर कह रहे थे कि मिनी एम.ए. करना चाहती थी पर निराकार की मेडिकल की पढ़ाई का खर्च बढ़ गया था । खैर, उसने आज़ इतनी पढ़ाई की थी इसलिए तो दिल्ली में है । दिल्ली कोई छोटी-मोटी जगह है क्या, देश की राजधानी है भई ! और मेरा बड़ा बेटा, दो-दो बार उसने आई.ए.एस. की लिखित परीक्षा पास की है । अच्छी निभ गई उसकी । क्या करता भला, इतना बड़ा परिवार संभालना बच्चों का खेल है क्या ? ट्युशन पढ़ाकर उसने अपनी पढ़ाई की है । यह बातें भास्कर के बारे में होती थीं । जैसे भास्कर के बारे में मेधा को कुछ पता ही न हो । बुढ़ऊ यह सारी बातें मेधा से क्यों कहते थे, यह उसकी समझ में नहीं आता था । मेधा सोचती थी, क्या मैं उनके परिवार का सदस्य नहीं हूं ? बाहर के किसी व्यक्ति को पूछने के जैसे मेधा से वो पूछते थे__‘तुम्हारे मैट्रिक में कितने नंबर आए थे?” मेधा चिढ़ कर कहती थी_‘अब मुझे कौन सी नौकरी करनी है अपने नंबर बताकर ?’ पर बुढ़ऊ पीछा न छोड़ते थे __ ‘अरे बताओ तो सही कौन सा डिविजन रहा था ?’ मेधा बड़ी तल्खियत से कहती थी, ‘फेल हो गई थी मैं ।’ फिर भी वो समझ नहीं पाते थे कि मेधा चिढ़ गई है । बड़ी नादानी से कहते थे, ‘मेरे कोई बच्चे कभी फेल नहीं हुए । हां, बस एक रिनी के लिए चिंता रह गई । कितनी बार कहा है मैंने भास्कर से कि भुवनेश्वर के गूंगे-बहरों की स्कुल में डाल दे इसे । पर भास्कर ने कभी मेरी बात सुनी नहीं । मैं तो मर जाऊंगा, फिर यह किस पर बोझ बनेगी बताओ ? मेधा को गुस्सा आ गया । पैदा करते वक्त समझ नहीं आई कि यह सब मेरे बेटों पर बोझ बनेंगी एक दिन, पर उसने कहा कुछ नहीं । रिनी एक नेक लड़की थी । सिर्फ एक बार वह भास्कर और मेधा के घर आई थी । दिनरात किसी मशीन की तरह किसी ना किसी तरह के काम में उलझाये रखती थी खुद को । कभी भास्कर के पेंट-शर्ट, तो कभी मेधा के ब्लाऊज को इस्त्री किया करती थी तो कभी बैठकर घर सजाती रहती थी । जब तक वो घर में रही कभी उसे निठल्ले बैठते नहीं देखा । क्रोशिए की टी.वी. कवर, टेपरिकॉर्डर कवर, यहां तक कि फिल्टर कवर बनाने से लेकर टेबलक्लथ, बेडसीट, तकिया की खोली पर एम्ब्राडरी जैसे कई काम वह मेधा के लिए कर गई थी । कभी कभी बागीचे की देखरेख भी किया करती थी । दो बरनी सागुदाने और चावल के पापड़ भी बनाए थे उसने । नए नए कई पकवान बनाने उसने ही सीखाए थे मेधा को । सिर्फ एक ही समस्या थी मेधा की उसके साथ और वह यह कि अधिकतर समय वो उसकी बातें समझ नहीं पाती थी । या फिर उसे कोई बात समझानी होती तो बहुत देर तक उसे हाथों के इशारों से समझाना होता था । मेधा को कभी कभी लगता था कि रिनी के साथ रहकर वो भी धीरे धीरे शब्दहीन और भाषाहीन हो जाएगी । श्वसुरजी ने लिखा था रिनी को कुछ सीखाने के लिए । अगर कुछ ना हो तो सिलाई स्कुल भेजकर कपड़े सीलना ही सीखाने की बात लिखी थी उन्होंने । भविष्य में कुछ तो करना होगा इस लड़की को । कहां भेजेगी भला मेधा इस गूंगी-बहरी लड़की को । जहां वो खुद उसकी जुबान समझ नहीं पा रही है तो दूसरे भला क्या समझेंगें । मन में शायद इसी तरह की शंकाएं लेकर आई थी रिनी । पर एक महीने में उसे समझ में आ गया था कि उसकी जिंदगी में कुछ बदलनेवाला नहीं है । एक दिन रूठ गई थी वो । पर उसके रूठने का कारण कोई समझ नहीं पाया था । मेधा को याद है कि खुद को कितना लाचार महसूस कर रही थी तब वो । बारबार वो रिनी से पूछती_“क्या हुआ रिनी, सर दर्द कर रहा है? पेट दुख रहा है? बदन में दर्द है? अगर मैंने या तुम्हारे भाई ने अनजाने में कुछ कह दिया है तो हमें माफ़ कर दो, चलो आकर खाना खा लो ।” बड़ी मुश्किल से भास्कर को समझ में आया था कि वो सिलाई स्कुल जाना चाहती है । सिलाई सीखना चाहती है वो । भास्कर ने समझाया था उसे कि सिलाई स्कुल घर से बहुत दूर है । उसे आने-जाने में बड़ी तकलीफ़ हो जाएगी । इस प्रकार मन में बड़ी कसक लेकर लौट गई थी रिनी अपने गांव । उस वक्त मेधा चार महीने के पेट से थी । बड़ी तकलीफ़ होती थी उसे । डाक्टर ने सब सुनकर कहा_ऐसी तकलीफ़ तो नहीं होनी चाहिए । आप कटक में अपना चेक-अप करवा लें । कटक के डाक्टरों ने कहा कि उसकी फैलोपियन ट्युब में ही भ्रूण का विकास हो रहा है । यह बड़े जोखिम वाली बात है । अभी से ही भ्रूण को नष्ट कर देना होगा । मेधा टूट गई थी डाक्टर की बातें सुनकर । पर उसके पास कोई ओर उपाय न था । मना करने का सवाल ही न था । कर ही क्या सकती थी मेधा । आखिर ऐसी अपवाद वाली घटना उसके साथ ही क्यों हुई सोचकर अपने भाग्य को कोसने के सिवा ओर कोई चारा न था उसके पास । मन में जितनी चिढ़ होने पर भी श्वसुर का स्नेह और दौड़-धूप ने उसे बहुत प्रभावित किया था उन तकलीफ़ के दिनों में । बुढऊ ने कहा था_ नहीं, मैं यहां नहीं रहूगां । किसी काम में तुम्हारी सहायता तो नहीं कर सकता उल्टे तुम्हारे सिर पर बोझ बन रहा हूं मैं । मैं गांव जा रहा हूं, और तुम्हारी शाशुजी को भेज दूगां । वो तुम्हारी सेवा-टहल कर पाएगी । शुद्ध गाय का घी भेजूगां और साथ में कविराज का बनाया हुआ मोदक भी । उसमें घी मिलाकर खाना तुम । शाशुजी आकर पहुंचीं । मेधा तब तक अपने दु:ख भूल नहीं पाई थी । यह चार महीने अगर उसकी जिंदगी में ना आते तो क्या फ़र्क पड़ जाता । शाशुजी आकर नाराज होने लगीं । उन्हें सही बात का पता न था। कहने लगीं_तू बेटे के साथ जीप में घूमती है इसलिए ऐसा हुआ । तू कहीं सहम तो नहीं गई थी । कोई सपना तो नहीं देखा । इनमें से कोई भी बात हुई न थी । अंधेरे में किसी भूत का अंदेशा करके वो चौंकी नहीं थी और ना ही कोई भयानक सपना देखा था उसने । शाशुजी ने कहा था_तू अब साल भर तक जीप में मत बैठना और ना ही शिवजी के दर्शन के लिए जाना । मेधा को मोदक रास नहीं आ रहा था । गोबर और काली मिर्च में जैसे कुछ जड़ी-बूटियां मिला दी गई हों । मीठे और तीखे का मिलाजुला बड़ा अजीब सा स्वाद था उसका । श्वसुरजी ने मोदक की बरनी के साथ एक चिट्ठी भी भेजी थी__ स्नेहिल बहु आशीर्वाद । लिखने का कारण बस यही था कि इस चिट्ठी के साथ एक सेर मोदक और आधा सेर शुद्ध गाय का घी भेज रहा हूं । खालिस घी, शहद, केशर, शीलाजीत, अश्वगंधा और स्वर्णभस्म मिलाकर बनाया हुआ है यह मोदक । नियम से लेना । तुम्हारा शरीर बहुत कमजोर हो गया है । यह तुम्हारे लिए फायदेमंद होगा । आशा है कि ईश्वर की कृपा से तुम और भास्कर आनंद से होगे । तुम्हारा शुभाकांक्षी श्वसुर फायदेमंद होगा इसलिए नहीं बल्कि बुढऊ की श्रद्धा को देखते हुए नियमित रूप से मोदक खाती थी मेधा । इसी बीच एक छोड़ी लड़की का इंतज़ाम किया था भास्कर ने घर के कामकाज के लिए । उस लड़की के साथ शाशुजी की चिक-चिक होती ही रहती थी । लड़की छोटी जात की थी । बारबार वो अपनी जाति की बात भूल जाती थी और भूल जाती थी शाशुजी की बंदिशों को । रसोई में बरतन-भांडे रहते हैं, कहीं उनको ना छू दे । स्टोर रूम में भगवानजी और अचार रखे हुए हैं, कहीं इसके स्पर्श से अपवित्र हो गए तो ! छोटी लड़की बेचारी जितना संभलकर चलने पर भी भूल जाती थी उन नियम कायदों को। गाली और थप्पड भी खाने पड़ते थे कभी कभी। मेधा अगर लड़की का पक्ष लेती तो शाशुजी चिढ़ जाती थीं_ तूने खुद तो मुर्गे का मांस खाकर जात भ्रष्ट कर ली, अब तू भला क्यों उसकी तरफदारी नहीं करेगी? _हां मैं चिकन खाती हूं। हमारे घर पर भी सभी खाते हैं। _क्या कहा...! तेरी मां भी खाती थी? मरद जात खाते होंगे तो होंगे। पर.... हां, मेरी मां भी खाती हैं_कहा था मेधा ने। _छी,छी, तू मेरे घर की बड़ी बहू है। तू हमारे वंश को आगे बढ़ाएगी। पितरों को पानी देगी। तू ये सब क्या काम कर रही है। बेटा खाता है तो खाए पर तू मत खाना यह सब। भास्कर ने कहा था_ ये सब पुराने जमाने कि बाते हैं मां। उसे खाने दो। उसके अस्वस्थ शरीर के लिए ये सब पौष्टिक खाना जरुरी है। शाशुजी गुस्से में आकर कहने लगी_ तुझसे ऊपर मेरे तीन बच्चे गिर गए थे तो क्या मेरे मुर्गे का मांस खाने से तेरा जन्म हुआ था। मेधा को उस दिन की यह बहस एकदम असह्य लग रही थी, लग रहा था जैसे दम घुट जाएगा उसका। सिर्फ़ इतना ही नियम न था उनका। खाने के टेबल पर बैठने पर शाशुमां सुरक्षित दूरी पर बातचीत के बहाने से बैठकर चौकीदारी किया करती थीं। ज़िगर हो, चर्बी हो, मछली का टूकड़ा हो या आमलेट ही क्यों ना हो, नजर बचाकर भास्कर कुछ ना कुछ डाल देता था मेधा की प्लेट में। ये बात उनकी नजर से छिपी नहीं रहती थी। कहती थीं_ कहावत है औरत राक्षसी होती है। इसलिए गृहस्थी की झूठन उसे नहीं खानी चाहिए,घर के मुखिया के बाल गिरने लगते हैं इससे। मेधा को लगता था मानो जिंदगी नर्क हो गई है। इन दिनों वह यह भूल चुकी थी कि उसका सपना था बेगम अख्तर बनने का। धीरे-धीरे वह भूल जाएगी कि लंबे प्रेम प्रसंग के बाद उसने शादी की थी। यह कैसी जिंदगी है? ऐसी जिंदगी से तो उसका पहले कोई परिचय न था? उसके आसपास तो कोई ऐसी घटना नहीं घटती थी? शाशु मां कहती थीं_ क्या तेरी मां ने कुछ सिखाया नहीं तुझे? बड़ियां डालना नहीं अचार बनाना ? नहीं मंडा पीठा ( चावल और नारियल से बना एक ओड़िया मिष्टान्न) बनाना ? नहीं नहीं, ना उन्होंनें मुझे कुछ सीखाया । और ना मैंने कुछ सीखा । मैं कुछ सीखना भी नहीं चाहती । मैं एक जिंदा लाश हूं । और जिंदा लाशें कुछ सीखती नहीं हैं । मेधा का स्वाभिमान उन्हें छू नहीं पाता था । कहती थीं _ देखा, मैंने तुझे कब मरने के लिए कहा है ? मेरे बेटे को चितोऊ पीठा अच्छा लगता है, बस इसलिए कह रही थी । हे भगवान,_आह भरती थी मेधा । वो थक चुकी थी इस संसार में । उसका स्वभाव शाशु-श्वसुर से बिल्कुल विपरीत था । टी.वी. के सामने दिन-रात बैठे रहते हैं और आधुनिक बेशभूषा में कोई लड़की दीख जाए तो कुछ ना कुछ ताना जरुर देते हैं । उनके पास बैठकर टी.वी. देखने की बिल्कुल पसंद न था मेधा को । कभी अगर वो कोई अच्छी साड़ी निकालकर पहन लेती तो पूछने लगते_अरे, कहां से ली यह साड़ी तूने, मायके से लाई या बेटे ने लाकर दी है । ऐसी ही एक रिनी के लिए भी ला देना ना । यही ले लो । एकदम यही साड़ी ओर दूसरी नहीं मिलेगी । अरे, तेरी कैसे ले लूं । एक नई रेशमी साड़ी खरीद लेना। रिनी के लिए भी एक ले आना । रिनी सोचती थी कि एक अजीब गोरखधंधें में उसकी जिंदगी फंसती जा रही है । अपने बाबा या मां को भी इसके लिए दोषी नहीं मान सकती । बाबा पहले से जानते थे कि इन दो परिवारों में पटरी नहीं बैठ पाएगी । अब वो किससे अपना दु:ख कहे । बाबा तो यही कहेंगें न कि भास्कर को तो तुने ही पसंद किया था, अब इसमें हम क्या कर सकते हैं ? जब मेधा अपना परिचय और यहां तक अपना नाम भूल चुकी थी और चतुर्थी होम के वक्त दिया गया “लक्ष्मी” नाम से वो ज्यादा परिचित हो गई थी । उस बुरे वक्त में अनिरुद्ध की लाल मारूति कार आकर रूकी थी उसके दरवाजे पर । अपनी आखों पर यकीन नहीं आया उसे । कुछ और मोटा होकर पके हुए सेब सा लग रहा था अनिरुद्ध । उसका गोरा रंग निखर कर ओर भी गोरा लग रहा था । दोनों गाल एकदम लाल । मेधा को अपने सामने देखकर, उसके दायें हाथ पर बाएं हाथ को पीटते हुए उसने अपनी खुशी जाहिर करते हुए कहा था_ हे, तुम मुझे देखकर हैरत में पड़ गई ना । तुम यहां कैसे ? पूछा था मेधा ने । क्यों, तुमने क्या सारी दूनिया की जागीर ले ली है । ओह, ऐसा मैंने कब कहा, कहा था मेधा ने । तुम जिस तरह से बोल रही हो, मुझे लगा तुम्हारे पति ने यह शहर खरीद कर तुम्हे भैंट में दे दिया है । मेधा को बड़ा आश्चर्य हुआ था, यही लड़का जो कलकत्ते में संगीत सम्मेलन में शर्मीला सा बैठा था, इतना स्मार्ट हो गया है । और, गीत-संगीत सब भूल गई हो या क्या ? तुमसे कहीं मुलाकात ही नहीं हो रही है, ना रेडियो पर, ना टीवी पर, ना किसी सम्मेलन में और ना ही किसी नुक्कड की कैसेट की दूकान पर । मेधा सिर्फ़ मुस्कुरा कर रह गई थी । कौन सी चक्की का आटा खा रहे हो आजकल ? मेधा चौंक गई थी । श्वसुर का भेजा मोदक खाकर लाली तैर आई थी उसके चेहरे पर । क्या मैं मोटी लग रही हूं तुम्हें ? अरे नहीं । तुम गाना-वाना विल्कुल भूल गई हो, इसलिए पूछा था । मेधा को लगा उसके मृत शरीर में कोई जान फूंक रहा है । संजीवनी छुआ रहा है उसे । आवाहन कर रहा है उसे । ओम आं नमः नाभ्यादि श्चरणांत । ओम ह्री नमः हृदयादिर्नाभ्यंतं । ओम क्रों मस्तकादि हृदयांतं । ओम जं त्वगात्मने नमः हृदि । ओम रं अस्मागात्मने नमः दौमूंळे ओम लं मासात्मने नमः कुकुदि । ओम वं मेदात्मने नमः कुक्षो । ओम शं अस्थ्यात्मने नमः हृदयादि पाद युगळे । ओम शक्रात्मने नमः जठरे । ओम प्रणात्मने नमः मुखे । ओम ह्री क्षं जीवात्मने नमः सर्वांगें । बड़ी खुशी का दिन था वह उसके लिए । अपने हाथों से खाना पकाकर खिलाया था उसने अनिरुद्ध को । वह भूल गयी या भूल जाना चाही थी कि घर पर शाशुमां हैं । बैठ कर गप्प मारने लगी थी अनिरुद्ध से । अनिरुद्ध ने बहुत सारे चुटकुले सुनाये थे उसे और हंस-हंस कर पेट पकड़ लिया था उसने । भास्कर से मुलाकात नहीं हो पाई थी अनिरुद्ध की । ऐसा मुमकिन ना हो सका था क्योंकि भास्कर किसी मुकदमे की गवाही देने गया हुआ था और वह बताकर गया था कि लौटने मे शाम हो जाएगी । वापसी में अपने कुछ कमर्शियल गानों के कैसेट दे गया था अनिरुद्ध । बहुत बहस करता था वो कमर्शियल गानों का पक्ष लेकर । कौन कहता है कि क्लासिकल संगीत ही संगीत होता है और कमर्शियल संगीत, संगीत नहीं होता । कमर्शियल का मतलब तो यही होता है ना कि जो ज्यादातर लोगों को पसंद आए । मेधा ने कहा था कि दुनिया में हमेशा से दो तरह के उपभोक्ता होते हैं । एक हैं आम उपभोक्ता और दूसरे हैं एलिट क्लास । अच्छा ‘एलिट क्लास’ से तुम क्या समझते हो । यह होते हैं बुद्धिजीवी । इनकी संवेदनशीलता क्या दूसरों से ज्यादा होती है। कमर्सियल का मतलब तो यही होता है ना कि यह ज्यादातर लोगों को पसंद आए । सही शब्दों में कहें तो असल में ये होते हैं मानवेतर जीव। अनिरुद्ध को गुस्सा आ गया था। जिस गीत को सुनकर कोई खुद को गुनगुनाने से ना रोक सके वो ही असली संगीत है। यह कैसेट सुनो फिर कहना, मैंने खूब प्रयोग किए हैं इस पर। अनिरुद्ध के जाने के बाद मेधा को बड़ा सूना-सूना सा लगने लगा। उसके साथ कैसे समय बीत गया पता ही न चला। क्या कुछ देर ओर ना रुकता वो। टेबल के ऊपर से कैसेट्स उठाकर अपने बेड-रुम में चली गई थी मेधा। ड्रेसीं टेबल के सामने खड़े होकर अपने चेहरे को निहारा था उसने। छी, क्या हाल हो गया है उसके चेहरे का। ब्लाउज-शाड़ी कुछ भी ढंग की नहीं। चेहरे पर जैसे तेल चुपड़ दिया हो। क्या सोच रहा होगा अनिरुद्ध। अनिरुद्ध के कैसेट को टेप-रिकार्डर में डालकर बिस्तर पर लेट गई थी वो। जीवन में कितनी अनिश्चितंताएं हैं। आज़ सुबह तक भी उसे पता न था कि अचानक अनिरुद्ध ऐसे आकर उसकी ओर हाथ बढ़ाकर कहेगा_देखो तुम्हारे सिवा सबकुछ कैसे बदल गया है। मेधा उदास हो गई थी। इतने लोगों की भीड में वो ऐसे कहां खो गई है कि खुद को खोज़ नहीं पा रही है। शाम को भास्कर की आवाज़ से नींद खुली थी मेधा की। उनींदी सी होकर उठते हुए उसने सोचा कि कहीं एक खूबसूरत सपना तो नहीं देख रही थी वो। चाय के प्यालों के साथ बाहर बरामदे में बैठे थे दोनों। शाशुजी अपने कमरे से निकल कर बाहर आते हुए बोलने लगीं_आज़ बहु का कोई दोस्त आया था। मेधा ने कहा_ अरे हां, वो अनिरुद्ध आया था। बहुत स्मार्ट हो गया है। डॉयनामिक भी। वैसे तो पहले ही वो सुंदर था अब जरा बदन भरने से गाल सेब से लाल हो गए हैं। उसके कुछ नए कैसेट दे गया है जाते वक्त। उससे गपशप करते हुए समय कैसे बीत गया पता ही न चला। शाशुजी हैरत से उसके चेहरे को देखने लगीं, शायद सोच रहीं थी कि अपने पति के सामने गैर-मर्द के रूप-सौदंर्य का बखान कोई करता है भला? तौबा। (9) बारम्बार परीक्षण टेबल पर सो-सो कर थक गई थी मेधा तब। डिसेक्सन ट्रे में चारो खाने चित्त लेटे मेंढक की तरह एक लंबी टेबल पर लेटना पड़ता था उसे। दोनों पैरों को उठाकर सलाईन स्टेंट पर टंगे कपड़े के फंदे में टांग दिया जाता था। गर्भाशय से कुछ ऊतक निकाले जाते थे परीक्षण के लिए। उनकी वायोप्सी की जाती थी। वह चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो मासिक के 24 घंटों के अंदर पहुंचना पड़ता था उसे डॉक्टर के पास। डॉक्टर के दरवाज़े पर हमेशा भीड़ लगी रहती थी। भीषण गरमी और बेचैनी के साथ इंतजार करना पड़ता था अपने नंबर का। मेधा को याद आ गया था वो रहस्यमय दरवाज़ा। सभी लोग उस बंद दरवाज़े की ओर टकटकी लगाए बेठे रहते थे कि कब डॉक्टर आएंगें। पर डॉक्टर थे कि प्रकट ही नहीं होते थे। धैर्य की सभी सीमाएं टूटने के बाद अचानक ठक की आवाज़ के साथ खुल जाता था दरवाज़ा। आनन-फानन में सभी मधुमक्खियों की तरह घेर लेते थे दरवाज़े को। धवल, स्वच्छ कपड़े पहने, एक औरत तीखी नाराज़गी भरी आवाज़ में बोलती हुई प्रकट होती थी_ अरे...ए..हटो...हटो । एक....ए...क कर। उसकी धमकी की कोई परवाह नहीं करता था। भास्कर बिना डरे नर्स को इंप्रेस करने के लिए सबके सिरों के ऊपर से अपना हाथ बढ़ाकर कहेगा, सिस्टर जरा अपना ये पर्चा तो देखना। नर्स प्रेसकिप्सन लेकर कहेगी_आप तो पुराने पेशेंट हैं। पर जरा देर लगेगी। जरा जल्दी में हैं सिस्टर। सर तो पुराने पेशेंट को ही पहले देखते हैं। ठीक है देखती हूं आपका काम कैसे आराम से हो जाए। मेधा को लगा था कि जो एक बार इन डॉक्टरों के चंगुल में आ जाता है, जल्दी से उसकी मुक्ति नहीं होती। हजारों पुर्जों से बना है यह शरीर। कब मानो शरीर के किसी हिस्से में दीमक लग गई है तो कभी कहीं मकड़ी ने इस पर अपने जाले फैला लिए हों। । कभी मानो कहीं जंग लगी जा रही है तो कभी कोई पुर्जा उखड़ा जा रहा है। हर पुर्जे की अपनी भूमिका और इतिहास होता है। मेधा के गर्भाशय के मुख पर कुछ काई सा जम गया है। फंगस या जेली जैसा ही कुछ? एक बार ऑपरेशन हो चुका है उसका डेढ़ साल पहले। छुरी, कैची, टेढ़ी कैंची, स्पिरिट आदि से उसके गर्भाशय के मुख को ऐसे साफ़ किया गया था जैसे मानो ईंट, नारियल के छिलके और ब्रश से से रगड़कर फ़र्श पर जमी काई को साफ़ किया जाता है। मानो काई को जमने के लिए कोई उपयुक्त जगह मिली थी तो वो था उसका गर्भाशय। लगता फिर से काई जम गई है चारों तरफ। उसी जमी हुई काई ने रास्ता बंद किया हुआ है गर्भाशय के द्वार का। अतिथियों को अंदर नहीं जाने दे रही थी यह काई, पर किसी प्रकार के दर्द का अनुभव नहीं किया था मेधा ने अभी तक। बाहर से देखने पर भी कोई शारिरीक विकार न था उसे। केवल वंचित थी तो वो बस एक अनुभूति से। सभी के पास जो अनुभूति है, वो भला क्यों वंचित रहे उससे। पर यह एक नियमित संघर्ष सा बन गया था उसके लिए। चार सालों से वो निरंतर दौड़ रही है डॉक्टरों के पास। अनेकों बार वायोप्सी और तद्जनित यंत्रणा को आंख भींच कर सहा है उसने। एक मरीज़ की तरह नियमित रूप से दवाईयां निगलनी पड़ी हैं उसे। चाहे कहीं भी किसी भी परिस्थिति में रहे उन चौबिस घंटों के अंदर दौड़कर आना पड़ा है उसे इन मरीज़ों की हाट में। कैसे भला भूल सकती उस दौर को मेधा। भुलाए नहीं भूल नहीं पाती वो ऑपरेशन के दिनों को। पेट में पड़े चार इंच के चीरे के निशान ने हमेशा हरा रखा है उसकी अनुभूति को। कोहरे में भास्कर। वो हाथ बढ़ाती है उसे छूने के लिए। जितनी कोशिश करने पर भी वो भास्कर को छू नहीं पा रही। भास्कर की हल्के नीले रंग की सफारी उसके सामने है पर वो उसे छू क्यों नहीं पा रही है। उसकी दोनों आखों से दो बूंद आंसू बह चले थे उसके कानों की तरफ़। किसी ने उसकी आंखों से आंसू पोंछ दिए थे। शायद वो भास्कर था। उसने फूट फूट कर रोना शुरु कर दिया था। भास्कर ने मानों कोहरे से हाथ बढ़ाते हुए उसके माथे को सहलाते हुए कहा था_अरे, ऐसे रोते नहीं हैं, सब ठीक है। ऐसे रोने से तो स्टिच खुल सकते हैं पगली। वो चित्त होकर सो रही थी। उसके पैरों के पास बैठी मां एक मूर्ति की तरह लग रहीं थीं। उसे घेरे हुए कुछ लोग खड़े हुए थे। उसके देवर भी जो डाक्टर थे। भाभी रोती क्यों हो? ऑपरेसन तो सक्सेस हुआ है। अनेस्थेसिया के कारण उसकी सांसों में गंध भर गई थी। गले में दर्द था। पेट में ऐसा एहसास होता था मानों कोई आग का गोला घूम रहा हो। छोटा भाई उसका हाथ पकड़ कर बैठा था जिसमें स्लाईन चल रही थी। बीच-बीच में निर्देश मिलते रहते कि पैर मत हिलाओ स्टिच खुल जाएंगी, हाथ मत हिलाओ स्लाईन चल रहा है। चाहे वो नर्स की रुखी हंसी हो या बेटा है या बेटी जांचने के लिए देहाती बुढ़िया का पेट टटोलना, कुछ भी तो नहीं भूली थी वो। नर्स का नजरिया उसके प्रति ऐसा विचित्र क्यों था यह समझ नहीं पा रही थी वो। पता नहीं, मेधा की गंभीरता सहन नहीं हो रही थी उससे या बाकियों से मिलने वाली दो-चार रुपये की ऊपरी आमदनी मेधा से ना हो पाने के कारण खफ़ा थी वो उससे। भास्कर को देखते ही नरम पड़ जाने वाली नर्स का व्यवहार मेधा के साथ अकेले में इतना रूखा क्यों रहता था? स्टिच खोलने का दिन था वो। मेधा बहुत नर्वस हो गई थी यह सोचकर कि बहुत तकलीफ़ होगी। भास्कर मेधा के सिर और गाल को सहलाते हुए और होंठों के चारो तरफ़ ऊंगली फिराते हुए कह रहा था_कुछ नहीं होगा देखना, कुछ नहीं होगा। तुमको बिल्कुल पता ही नहीं चलेगा। आउटडोर में आजतक नरम व्यवहार करती आ रही नर्स की नजर न जाने कैसे इस पर पड़ गई। तुरंत अंदर आकर उसने कहा कि यह सब नहीं चलेगा यहां। यह सब मतलब? कहना क्या चाहती हो तुम? यह मेरे पति हैं। तुम्हारे पति होंगें तुम्हारे घर में। यह नर्सिं होम है। बिस्तर पर नहीं बैठ सकते वे। भास्कर तुरंत चला आया था कुर्सी पर। परंतु इस घटना के बाद बारंबार अपमानित करने का प्रयास करने लगी वो नर्स उसे। जैसे तुम्हारा मिल्क सिक्रेसन चालु हुआ? मिल्क सिक्रेसन? मैं डिलिवरी पेसेंट नहीं हूं। ओह, सॉरी। उसके बाद हंस देती थी वो। बड़ी अश्लील होती थी वो हंसी। डॉक्टर कह रहे हैं एक बार फिर से ऑपरेशन करना पड़ेगा। पहले ऑपरेशन में कुछ खामी रह गई थी। कैसी खामी? क्या काई की जड़ को निकालना भूल गये थे डॉक्टर। नहीं, अब और नहीं_कहा था मेधा ने। बहुत हो गया। मुझे अब और नहीं चाहिए यह सारा ड्रामा। भास्कर ने कहा था_देखो, बच्चे के लिए मैं इतना परेशान नहीं था। तुम ही अफ़सोस करती थी इसलिए ट्रीटमेंट करवा रहा था। अगर तुम नहीं चाहोगी तो बंद कर देंगें ईलाज़। मेधा ने कहा था_इससे तो अच्छा है कि हम एक बच्चे को गोद ही ले लें। भास्कर ने कहा था_ वो बाद में देखा जाएगा। तुम्हारे वो दोस्त अनिरुद्ध को देख रही हो ना, कैसे नाम कमा रहा है। तुम अगर चाहो तो क्या नहीं हो सकता? सुना है आकाशवाणी में ‘सी’ ग्रेड की कलाकार रह चुकी हो। अब तक ‘ए’ ग्रेड तक पहुंच चुकी होती। तुम्हें जाकर पता लगाना चाहिए कि वे आजकल तुम्हें बुलाते क्यों नहीं। मेधा ने कहा था_ संगीत और चूल्हे-चौकी का जुगाड़ दोनों अलग चीजें हैं। मुझसे दोनों चीजें एकसाथ नहीं हो सकती। क्यों, जो भी संगीत साधना कर रहे हैं उन सब ने क्या गृहस्थ से संन्यास ले लिया है। नहीं, होगा उनका भी गृहस्थ होगा, पर वे गृहस्थ में डूब नहीं जाते हैं। क्यों बहस करती हो, कहा था भास्कर ने। साफ़ साफ़ क्यों नहीं कहती हो कि अब डर लगता है संगीत से। सब भूल गई हो। इधर-उधर की बातें क्यों करती हो? भास्कर ने पता नहीं कैसे भांप ली थी उसके मन की बात। उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी नए कलाकारों की भीड़ को चीर कर आगे निकलने की। पता नहीं कितने दिनों से खो चुकी थी वो अपने आत्मविश्वास को। हालांकि ओड़िशा में शास्त्रीय संगीत से नाम कमा पाना मुश्किल है फिर भी उन लड़कियों की संख्या भी कुछ कम नहीं जो इस क्षेत्र में उभर कर सामने आईं हैं। कितना अच्छा गा रही हैं वें। जगन्नाथजी को लेकर सैंकड़ों कैसेट निकल रहे हैं। उससे कितनी ही छोटी लड़कियां संगीत की दुनिया में नाम कमा रही हैं। उसकी वापसी का भला कौन इंतजार कर रहा है। वो फिर से भला अपने काफिले में कैसे शामिल हो, आखिर कैसे? भास्कर ने कहा था_ तुम उस अनिरुद्ध से क्यों नहीं पूछती हो कि कौन सी कंपनियां उसके कैसेट निकाल रही हैं, वो तुम्हें भी मदद कर सकती हैं। अनिरुद्ध के साथ मेरी मुलाकात हुए कितने साल बीत गए। वही जब वो पिछली बार आया था कार लेकर, उसके बाद फिर कहां मुलाकात हुई है उससे। पता नहीं बेचारा किस हाल में होगा। कितना बड़ा तूफ़ान आया है उसकी जिंदगी में। भास्कर ने कहा_ हां, सभी की जिंदगी में ऐसे तूफ़ान आते हैं। इसमें नया क्या है? किसे दुःख नहीं है, हां यह जरूर है कि सभी के दु:खों का रंग अलग-अलग हैं। अनिरुद्ध को दूसरी शादी कर लेनी चाहिए, कहा था मेधा ने। इन सिनेमा पत्रिकाओं में उसके नाम पर जो अफवाहें फैल रही हैं उससे तो मुक्ति मिलेगी उसे। अनिरुद्ध की अर्ध-विक्षिप्त पत्नी ने खुद पर किरोसिन डाल कर आग लगा ली और उसके मायके वाले इसे दहेज का मामले में की गई हत्या बता कर अनिरुद्ध को जेल भिजवा दिया। एक बार तो इस खबर ने खूब सुर्खियां बटोरी। अनिरुद्ध के पिता एक ठेकेदार और बिल्डर होने के कारण खूब पैसे बहाये शायद अपने बेटे के बचाव के लिए। उसकी बीबी का इलाज करने वाले डॉक्टर ने गवाही दी कि उसे बीच-बीच में ऐसे ही पागलपन के दौरे पड़ते थे। वैसे अखबारों में कई दिनों तक अनिरुद्ध के नाम पर बहुत सी मजेदार कहानियां निकलती रही । मां के मर जाने के कुछ दिनों के बाद अनिरुद्ध की छोटी सी बच्ची भी पीलिया से चल बसी। चाहे अनिरुद्ध निर्दोष रहा हो या उसके बाप की पैसे की ताकत हो, अंत में वो बाईज्जत बरी हो गया था। एक-आध पत्रिका ने अनिरुद्ध के साथ हुए इस हादसे को तो प्रेम-त्रिकोण का रूप देकर इसे आवरण कथा के रूप में छापा था। भास्कर ने कहा था_ उसके जीवन में ऐसी दुखद घटना घट जाने के बाद भी क्या उसने संगीत से नाता तोड़ लिया। बड़े मज़े से उसके कैसेट्स आ रहे हैं, रेड़ियो-टीवी पर प्रोग्राम चल रहे हैं। कई नई फ़िल्मों में उसके गाने सुनने के लिए मिल रहे हैं। तुम तो हमेशा इन कमर्शियल गानों के पीछे पड़े रहते हो_कहा था मेधा ने। भास्कर ने कहा था_ मुझे इतनी बातें समझ में नहीं आती। इसका मतलब क्या यह हुआ कि मोहम्मद रफ़ी और मुकेश को लोग भूल गये। भास्कर के साथ और ज्यादा बहस नहीं कर पाती थी मेधा। कहती थी_ठीक है, मैं गुरुजी से मिलुंगी। गुरुजी से क्या तुम्हारा मतलब पंडित रामकृष्ण आचार्य से है? तुमनें उनसे इतने दिनों तक संगीत की शिक्षा ली, पर क्या फायदा हुआ। तुम्हें प्रमोट करने के लिए कुछ कर पाए वो? ऐसे गॉड-फादर का हाथ पकड़ना चाहिए जो तुम्हें लाइम-लाईट में ला सके। मेधा ने कहा था_गॉड-फादर? प्रतिभा ना हो तो गॉड-फादर क्या कर लेगें भला। इनकी भूमिका प्रिष्ट या पुरोहित की तरह ही होती है। हंसी थी मेधा। सारे पुराने मुल्य धीरे-धीरे टूट रहे हैं। आज़ का समय कुछ और ही कहना चाहता है। उसे भी इस समय की धार के साथ बह जाना होगा। उसने कहा था_ठीक है, मैं अनिरुद्ध को लिखूगीं। (10) मेधा को दो बातें सीखने के लिए मिली थी संगीत की दूनिया से बाहर निकलकर। संगीत की इस दूनिया में किसी मुकाम को हासिल करने के लिए प्रतिभा से ज्यादा गॉड फादर और सिफ़ारिश की जरुरत रहती है। दूसरी बात यह कि संगीत की दूनिया बाहर से जितनी स्वरमय, रसमय और छंदमय लगती है, संगीत को आधार बनाकर जीने वालों के यह विलकुल इसके विपरीत है। रूपये-पैसे की खनक, आपसी ईर्ष्या-द्वेष, और चापलूसी की गमक इस दूनिया की लय-ताल को बिगाड़ रही है। संगीत के प्रति उसकी अनायस चाह के लिए हो या भास्कर के आग्रह के लिए हो, वह स्थानीय संगीत विद्यालय के साथ जुड़ गई थी। एक दिन अचानक शाम को गाड़ी में बिठाकर एक अधेड़ उम्र के इंसान को ड्राईंगंरुम में लाकर खड़ा कर दिया था भास्कर ने। यह हैं गोस्वामी बाबु, यहां के संगीत स्कुल के शिक्षक। मेधा ने हाथ जोड़कर नमस्ते किया था। गोस्वामी जी ने चाय पीते हुए स्थानीय संगीत स्कूल की जर्जरता के बारे में बताना शुरु किया। राऊरकेला एक औद्योगिक शहर होते हुए भी लोगों की संगीत और संस्कृति के प्रति सजगता है, पर इस सिविल टाउन में ऐसा नहीं है। यहां मां-बाप बच्चों को संगीत सिखाना बेकार का खर्च मानते हैं। अजी, भुवनेश्वर में आपको हर गली में ओडिशी नृत्य और संगीत सीखाने वाले स्कूल मिल जाएगें। मेधा ने कहा था कि आप भुवनेश्वर और राऊरकेला जैसे शहरों से इस आदिवासीबहुल और कभी रजवाड़ों का राज्य रहे इस शहर की तुलना क्यों कर रहे हैं। देखिए, अभी भी आदिवासी गांवों में उनका लोक संगीत मुखरित होता है पर शहर का मध्यम वर्ग इस मामले में जस का तस बना हुआ है। वे खुद को रजवाड़ी मानसिकता से आजाद नहीं कर पाया है। और जहां तक मैं सोचती हूं, अपनी परंपरावादी सोच के कारण ही लोग संगीत सीखने नहीं आते। यहां पैसा कोई विशेष मायने नहीं रखता। गोस्वामी बाबु ने भी अंततः मेधा की बात पर अपनी सहमति जताई थी और उससे वचन ले लिया था कि सभी मिलकर बढ़िया से स्कूल का पुर्ननिर्माण करेंगें। परंतु असल में मेधा खुद को किसी सामाजिक परिवेश में शामिल ना करा पाने के कारण और क्रमशः किसी जुड़ाव से बाहर होकर अपने दायरे में सीमित रहने की आदत के चलते, किसी ना किसी बहाने से स्कुल की निरंतर उन्नति में सहायता नहीं कर पाई थी। ना डोनेशन के जुगाड़ में और ना ही छात्रों के जुगाड़ में। फिर भी गोस्वामी बाबु आदि बीच-बीच में आते ही रहते थे। गप्पें चलती थीं। ऐसी ही गपशप में एक दिन मेधा ने उनके सामने एक कैसेट निकालने की बात कही। गोस्वामी बाबु बड़े उत्साही व्यक्ति थे। कैसेट की बात उनको बड़ी भा गई। उसके बाद शुरु हो गया संगीत का निरंतर रियाज़। स्थानीय संगीत स्कुल के शिक्षकों ने पुरजोर सहायता की थी। मेधा ने भी कड़ी मेहनत की इस कैसेट के लिए। ‘छह’ गानों का अभ्यास किया था उसने ‘स्वर लहर’ नाम के कैसेट के लिए। इन कुछ ही दिनों में घर का माहौल बदल गया था। मेधा को लगा जैसे वो फिर से कॉलेज़ के दिनों में लौट गई है। संगीत स्कुल के छोटे छोटे बच्चों से उसकी खूब जमने लगी थी। हालांकि उसने स्कुल से नहीं बल्कि घर से ही अपनी तैयारी शुरु की थी। इन दिनों घर का ड्राइगं रूम तबला, सितार और हारमोनियम के स्वर ताल से गूंजने लगा था। हर शाम को एक छोटी-मोटी चाय पार्टी हो जाती थी। लगभग दो-ढाई घंटे इसी में बीत जाते थे रियाज़ और गपशप में। भास्कर अकेले इस समय को कैसे काटे यह सोचकर अखबार पढ़ने, रेड़ियो सुनने जैसे कामों में खुद को उलझाए रखता था। बाद में शाम को सोने की बुरी लत लग गई थी उसे। रियाज़ के बाद रोटी-सब्ज़ी बनाकर मेधा उठाती थी उसे। कहती थी_ शाम को भला कोई ऐसे सोता है भला। पता नहीं है आपको, इससे लक्ष्मी रुठ जाती हैं घर से। भास्कर ने कहा था_ तो मैं क्या करुं कहो? मुझे संगीत का ‘कखग’ तक तो आता नहीं जो तुम्हारे साथ तबला या सितार लेकर बैठूं। हां, अगर मुझे पकाना आता तो जरुर तुम्हारे लिए खाना पकाकर रख देता। मेधा नाराज़ हो जाती उसकी ऐसी बातें सुनकर। तुमसे कौन कह रहा है तबला-पेटी लेकर बैठने के लिए या खाना पकाने के लिए। मेरे कहने का मतलब सिर्फ़ यही है कि शाम को सोना शगुन नहीं होता है। ठीक है, कल से तुम्हारे रियाज़ के वक्त मैं ड्राइगं रूम में बैठा रहूगां। अरे, मैं ऐसा तो नहीं कह रही तुमसे_ असहाय से स्वर में कहती थी मेधा। तो आखिर तुम कहना क्या चाहती हो। मैं संगीत की दुनिया का वासिंदा नहीं हूं। तुम अगर मुझसे ऐसी कोई उम्मीद करती हो तो मैं लाचार हूं। शादी के बाद भास्कर की आदत पड़ गई थी शाम को ऑफ़िस से सीधे घर चले आने की। पर अब वो शाम को कहां जाए। जो कुछ दोस्त थे उसके शादी से पहले वे सब तबादले आदि के चलते यहां-वहां चले गए। अब वो ऑफिस में क्या बुत बनकर बैठा रहे। इधर गोस्वामी बाबु ने घोषणा कर दी थी कि वे शाम के समय अलावा दूसरे किसी वक्त नहीं आ पाएगें। मेधा सोच रही थी कि कुछ दिनों में सारी चीजें व्यवस्थित हो जाएगीं। इधर अनिरुद्ध के पास चिट्ठी लिखने की बात पर उसे बड़ा संकोच हो रहा था। इससे पहले कभी चिट्ठियों से संपर्क नहीं रहा उसके साथ। क्या लिखे? क्या पूछे? क्या सीधे-सपाट यह पूछे कि मुझे अपना एक कैसेट निकालना है जिसके लिए मुझे तुम्हारी मदद की जरुरत है। नहीं, वो उससे ऐसे नहीं कह पाएगी। तो क्या यह कहकर अपनी संवेदना जताए कि तुम्हारे साथ कुछ अच्छा नहीं हुआ। अगर वो यह सोचे कि इतने दिनों तक आखिर इसकी यह सहानुभूती कहां थी तो? इसके अलावा उसका हमउम्र कलाकार ही तो है वो। उससे ही गुजारिश करे कि उसके सहारे ऊपर उठना चाहती है वो। भास्कर ने उसे सचमुच एक मुश्किल परिस्थिति में डाल दिया था। अब वो उम्र भी नही रही कि वैसा ढोंग रचाए जैसा कॉलेज में पढ़ने के दिनों में अनचाहे प्रेमियों के साथ रचाने में उसे मजा आता था। मेधा ने आखिर तय किया कि वो एक साधारण सी चिट्ठी लिखेगी। अगर अनिरुद्ध ने उसे याद रखा होगा तो संपर्क बढने पर सारे रास्ते खुल जाएगें। नहीं तो फ़िक्र करने की भी कोई बात नहीं। मेधा ने लिखा था__ प्रिय अनिरुद्ध, आशा है अच्छे होगे। वही जो तुम एक बार यहां आए थे, उसके बाद से तो तुम्हारा कोई पता ही नहीं है। अचानक कहां गायब हो गए। केवल मशीनी आवाज़ में ही तुमसे संपर्क हो पाया था। अब तो तुम अखबारों की सुर्खियों में हो। अख़बारों के पन्ने पलटने पर भी तुम मिल जाते हो। खैर, कैसे हो तुम? अख़बारों से ख़बर मिली थी कि विदेश जा रहे हो। तुमने मुझे अपने घर में जो लतीफ़े सुनाए थे वो मैं भूली नहीं हूं। तुम्हारे साथ जो कुछ घटा उससे मुझे बड़ा दुःख हुआ। उम्मीद है कि अभी सब कुछ ठीक चल रहा होगा। तुम्हारी मेधा इतने छोटे से ख़त को लिखने के लिए मेधा को तीन बार कोशिश करनी पड़ी, और तीन पन्ने फाड़ने पड़े। अंततः उसने यह चिट्ठी लिखकर अनिरुद्ध के पते पर पोस्ट कर दी। चिट्ठी भेजने के बाद मेधा को आधारहीन चिंताओं ने घेर लिया। हमेशा उसे यह खटका लगा रहता कि अगर अनिरुद्ध ने जवाब नहीं दिया तो उसकी बड़ी फ़जीहत होगी। यह सोचते हुए उसे ऐसा लगता था मानो उसके व्यक्तित्व के बूत से पलस्तर झड़कर गिर रहा हो। क्या उसका अपनी ओर से पहल करना उचित था। फिर वह यह भी सोचती थी कि मित्रता में इतनी औपचारिकता क्यों? इसे उसे हल्के से ही लेना चाहिए। ऐसे ही आशा और आशंका में हफ़्ता भर बीत जाने के बाद मेधा के नाम अनिरुद्ध का एक पत्र आकर पहुंचा। पत्र छोटा था पर उसमें अनिरुद्ध की संपूर्ण झलक दिखाई दे रही थी। प्रिय मेधा, तुम्हारी सहृदयता का कोई सानी नहीं। प्लीज तुम कुछ पूछना नहीं मेरी जिंदगी के बारे में। इससे मुझे ज्यादा दुःख होता है। हां, पत्र-पत्रिकाओं को मेरे बारे में मसालेदार खबरें छापने में मज़ा आता है। गाना-वाना गाने की इच्छा मरती जा रही है आजकल। सिर्फ़ खूब पी रहा हूं। पीने के सिवा ओर कुछ नहीं कर रहा हूं। तुम नियमित तौर पर चिट्ठी देते रहना। मैं तुम्हारा एक अच्छा दोस्त नहीं हो सकता हूं पर फिर भी मैं तुम्हारा बहुत करीबी मित्र हूं। तुम्हारा अनिरुद्ध मेधा के हृदय पर मानो फूलों की वारिश हो गई। जैसे किसी सोढ़षी ने पहले पहल प्यार का एहसास किया हो। नहीं, उसके मन में कोई पाप के अपराधबोध की भावन न थी। भास्कर को लेकर कोई डर भी नहीं। हवा में फूलों की खुशबू और पक्षी के कंठ का स्वर बनने की इच्छा हो रही थी उसे। मेधा तुरंत उसे उत्तर लिखने बैठ गई। पर क्या लिखे, क्योंकि अनिरुद्ध ने तो उससे अपने जीवन के बारे में कुछ पूछने से मना किया है। हालांकि वो बहुत दुःखी और अकेला है। मेधा ने लिखा था_ अनिरुद्ध, पीना दुःख को भूलाने का उपाय नहीं है। खुद को बसंत बना लो, देखना जैसे सारा जीवन हरियाली से भर जाएगा। संगीत से नाता मत तोड़ो, अपने शरीर का ख्याल रखो। संगीत को ही अपना जीवन बना लो। इति, मेधा। चिट्ठी भेजने के बाद मेधा अपना घर-संसार भूलकर इंतजार करती थी अनिरुद्ध के ख़त का। इधर गोस्वामी बाबु आदि से उसका ध्यान बंटने लगा था। “स्वर लहर” नाम से उसे चंद गाने पेश करने हैं, वो यह भूल जाती थी। अब वो किसी ओर ही दूनिया में रहती थी। पता नहीं उसके सीने में प्रेम की पंखुडियां खिल रही थी या दुःखी अनिरुद्ध के प्रति यह केवल उसकी अत्यधिक संवेदना मात्र थी। एक एक दिन का हिसाब कर रही थी मेधा, आखिर उसकी चिट्ठी अनिरुद्ध के पास कितने दिनों में पहुंचती होगी और उसका उत्तर मिलने में कितने दिन लगेगें। कुल मिलाकर हफ़्ते भर का इंतजार करना ही पड़ता था। इस बार इंतजार हफ़्ते भर से ज्यादा का हो चुका था। मेधा का मन बड़ा अनमना हो रहा था। अप्राप्ति के एक अनोखे एहसास में समय काट रही थी वो। एक चिट्ठी, मामूली सी एक चिट्ठी उसके जीवन की इतनी बड़ी तृष्णा बन जाएगी यह उसने कभी सोचा भी न था। मेधा की आशंका के मुकाबले नाराजगी बढ़ती जा रही थी अनिरुद्ध के ऊपर। लगभग 15 दिनों के बाद अनिरुद्ध का ख़त आकर पहुंचा। चिट्ठी पढ़कर उसकी सारी नाराजगी वर्फ़ के समान पिघल गई थी धीरे-धीरे। प्रिय मेधा, सरकारी जिंदगी के साथ व्यक्तिगत जीवन की मरुभूमि मानो उलझ गई हो। सरकारी जिंदगी की निरर्थकता मानो जीवन का सारा रस चूस ले रही है। कैसे दिन जाते हैं और कैसे सुबह से रात हो जाती है कुछ पता नहीं चलता। कहने को यह शब्दों का जाल मात्र लगे पर सरकारी नौकरी मानों शोषक है और मैं शोषित हो गया हूं। सभी शोषण व्यवस्थाओं की तरह यहां भी मेरी सहमति ही होगी शायद। मैं नौकरी छोड़ दूंगा। नौकरी का इस्तीफ़ा अपनी जेब में लेकर घूम रहा हूं। खूब शीघ्र आज़ाद हो जाऊंगा अपने इस स्वेच्छिक शोषण से। तुम्हे देखने की इच्छा हो रही है। पता नहीं अब कैसे लग रही होगी तुम। चिट्ठी लिखना। इति अनिरुद्ध। हर चिट्ठी के साथ अनिरुद्ध कदम दर कदम आगे बढ़ा चला आ रहा था मेधा की ओर। किसी भी प्रकार से मेधा खुद को अलग नहीं कर पा रही थी अनि की चिंताओं से। कहने को दिनभर वो भास्कर के साथ रहती थी पर मन अनि के इर्द-गिर्द घूमता रहता था। गोस्वामी बाबू इधर बड़े परेशान हो गए थे। धीरे-धीरे वो अपना धैर्य खोते जा रहे थे। वे अब यह सोचने लगे थे कि उनकी मेहनत बेकार ही गई। एक दिन दुःखी होकर पूछने लगे_ और कब जा रही हैं मैडम आप कटक की ओर। अपनी तरफ से तो पूरी तैयारी है, आप जाकर प्राथमिक स्तर पर बातें कर आईए। यद्यपि मेधा और अनि में दोस्ती खूब गहरी हो चुकी थी, फिर भी मेधा अनि से खुद के लिए कुछ करने की पहल नहीं कर पा रही थी। अनिरुद्ध भी मेधा के लिए कुछ करना चाहिए, ऐसा सोचकर आगे नहीं आ रहा था। मेधा को यह एहसास हो गया था कि अनि से ऐसा कोई अनुरोध करना उसके वश की बात नहीं। उससे अच्छा है कि वो खुद जाकर गुरुजी से मिले। कलकत्ते के संगीत सम्मेलन के बाद से गुरुजी मुलाकात नहीं हुई है। शायद वे भूल ही गए हों मेधा को इस दरमयान। एक रविवार को भास्कर ने मेधा को भोर वाली बस में बैठा दिया। बसस्टेंड से जब तक बस ना छूटी थी तब तक मेधा खूब सहज थी। पर जब बस छूटने लगी और हाथ हिलाता भास्कर जब गायब हो गया उसे लगा मानो वो भीड में अकेले उस इंसान की तरह हो गई है जो किसी पथभ्रष्ट पक्षी की तरह यहां-वहां पंख फ़डफ़डाता उड़ रहा है। उसे पता नहीं है कि उसे कहां जाना है और कया करना है। गुरुजी या अनिरुद्ध कौन हाथ बढ़ाएगा उसकी ओर। इससे पहले उसने खुद को कभी इतना असहाय महसूस नहीं किया था इस कदर । यहां तक हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करते वक्त भी उसके अंदर ऐसा डर ना था जो अब उसे विचलित कर रहा है। उसे लग रहा है कटक पहुंचकर गुरुजी के मकान वाली गली को ही भूल जाएगी वह। वैसे असल में कौन सी गली थी_ दायें या वायें। कटक में हजारों गलियां हैं और सभी गलियों के नजारे लगभग एक से हैं। शादी के बाद लगातार भास्कर उसके साथ-साथ ही रहकर वारिश में छतरी, अंधेरे में दीया और खेत के लिए बाड़े सा काम किया है और शायद इसिलिए आज़ वो खुद को उसके बिना इतना असहाय महसूस करती है। अख़बार के बीच के पन्नों के हत्या, बलात्कार जैसे शब्द उसकी आंखों के सामने नाच रहे हैं। इससे पहले गुरुजी के घर जाकर उसका जो अनुभव रहा है इसके कारण दुबारा वहां जाने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। हां, गोस्वामी बाबु पर उसे बड़ा गुस्सा आ रहा था यह सोचकर कि भला उसे इतना परेशान करने की क्या जरुरत थी। मर्द होकर ये सारे दौड़-धूप वाले काम उन्हें खुद करने चाहिए। उलटे मेरा ही पल्लु पकड़कर ऊपर आना चाहते हैं। मेधा को खुद पर भी गुस्सा आ रहा था “क्या जरुरत थी सबके सामने इस बात का ढिंढोरा पिटने की कि कलकत्ता में संगीत सम्मेलन में गई थी और अनिरुद्ध मेरा एक अच्छा दोस्त है कहकर। क्या तुझे पता नहीं थी गुरुजी की असहायता और लाचारगी का। नहीं, गुरुजी उसे भूले ना थे। रिक्शा आखिर गली-उपगलियों से होते हुए दोपहर बारह बजे गुरुजी के दरवाजे पर हाज़िर हुआ। जरा भी बदला न था गुरुजी के मकान का नक्शा। गुरुजी के पैर छूकर प्रणाम किया था उसने। गुरुजी ने उसके आने पर एक तटस्थ भाव दिखाया था- ना ही खुश और ना ही उदासी का भाव। दबे हुए से स्वर में पूछा_ कहां है तू आजकल? नीलगीरि में, बताया था उसने। कटक घूमने आई है? अच्छी बात है, बैठ बैठ। आपके पास आई थी, कहा था मेधा ने। आले में कोई चीज खोज रहे थे गुरुजी। मेधा ने पूछा था_ क्या चश्मा खो गया है गुरुजी? हां, पता नहीं कहां रख दिया। उसके बाद उससे पूछा था कि वह क्यों आई है उनके पास। ऐसे ही। गुरुजी हंसने लगे_ ऐसे भला कोई किसी के पास आता है। भास्कर चाहता है कि मैं फिर से संगीत की दूनिया लौट आऊं। गुरुजी उसकी बात सुनकर पलटकर हंसने लगे। उस हंसी में पता नहीं क्या भाव छिपा था पर मेधा को लगा जैसे गुरुजी कह रहे हों_ तुझसे अब होगा नहीं यह सब। मेधा ने कहा था_ मैंने कुछ गानों का अभ्यास किया है वहां के कलाकारों के साथ मिलकर। अब गानों कि रिकॉर्डिंग का कैसेट निकालना चाहती हूं। शास्त्रीय संगीत का कैसेट क्या चलेगा? उसके अलावा शास्त्रीय संगीत का कैसेट बनाने के लिए कोई राजी होगा, मुझे तो ऐसा नहीं लगता, कहा था गुरुजी ने। मेधा बैठी हुई थी तभी गुरुजी की दो छात्राएं आईं। दोनों की उमर करीब सत्रह-अट्ठारह वर्ष की रही होगी। ताजा ताजा बागीचे से तोड़कर लाए गए दो फूल की तरह लग रही थीं वे दोनों। गुरुजी के चरण छूकर प्रणाम किया उन्होंने। जब वे प्रणाम कर रही थीं तब ऐसा लग रहा था कि उन्हें गुलदस्ता समझ कर उसमें सजी रहना चाहती हैं वें। गुरुजी ने तो उसके कैसेट बनाने पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। उसने सोचा अब चलना चाहिए। वो उठ रही थी तभी गुरुजी ने पूछा_ तेरा कहीं ओर काम है तो निपटा कर आजा; फिर बैठते हैं। मेधा ने कहा_ नहीं, मेरा कहीं ओर काम नहीं है। फिर बैठ जल्दी क्या है? दोनों लड़कियों ने इसी बीच शुरु कर दिया_ तेरी तिरछी नजरिया.....। वहां से लौटते हुए मेधा को इतना ही फायदा हुआ कि उसने गुरुजी को भरोसा दिला दिया था कि वह वास्तव में संगीत की दूनिया में लौटना चाहती है। गुरुजी ने पीठ थपथपा कर कहा था_ रवि ठाकुर ने क्या कहा था पता है?......“गानेर भीतर दिए जखन देखी भूवन कानी, तखन तारे चीनी आमी तखन तारे चीनी.....।” (संगीत के माध्यम से जब आसमान को देखता हूं, तब ही मैं तुम्हे पहचानता हूं, तब ही पहचानता हूं। “मूर्च्छना” इलेक्ट्रोनिक्स के मालिक गदाधर बाबु को चिट्ठी लिखते हुए गुरुजी ने कहा था_ वे बड़े भले आदमी हैं; ले यह चिट्ठी उन्हें देना। मेधा गुरुजी को प्रणाम कर, चिट्ठी लेकर सीधे मूर्च्छना इलेक्ट्रोनिक्स के लिए निकल पड़ी थी। मेधा सोच रही थी कि इस कैसेट कंपनी की ऑफिस खूब सुसज्जित होगी। संभवतः अंदर स्टूडियो भी होगा। स्टूडियो में सितार, तबला आदि उसकी शोभा बढ़ा रहे होगें। व्यागों-टांगों आदि वाद्य यंत्र भी रखे हो सकते हैं। लेकिन हरिपुर रोड़ पर “मूर्च्छना” इलेक्ट्रोनिक्स एक बढ़ई की आसबाब की दूकान के किनारे दबी कुचली सी ग्लैमरहीन अवस्था में छिपी हुई दूकान थी। आसपास पूछते-पूछाते रिक्शेवाले ने आखिर उसे पहुंचाया था अपने गंतव्य तक। मूर्च्छना इलेक्ट्रोनिक्स के सामने कैसेटों का शोरुम था। किसी तरह नाली पर लगे लकड़ी के पट्टों फांदते हुए उसका दूकान में पहुंचना हुआ। दूकान के अंदर लकड़ी की एक मेज पड़ी हुई थी जिसपर फाईलों का ढेर लगा हुआ था। कुर्सी पर चालीस की लगभग उमर के एक व्यक्ति बैठे हुए थे और उनके सामने एक बुजुर्ग। मेधा ने पहचाना कि यह बुजुर्ग ओडिशा के विशिष्ट गायक पद्मनाभ बाबु हैं। मेधा ने नमस्कार किया और पूछा_ गदाधर बाबु हैं? वहां बैठे व्यक्ति ने पूछा, कोई काम था क्या? पं. रामकृष्ण आचार्य ने एक चिट्ठी भेजी थी। बैठिए, कहा था उस व्यक्ति ने। मेधा ने देखा कि ऑफिस में तीसरी कुर्सी नहीं है, दीवार के किनारे सटी बैंच पर जाकर वह बैठ गई। गदाधर बाबु नामक उस व्यक्ति ने पद्मनाभ जी से कहना शुरु किया_ अच्छा गीत अब और कौन गा रहा है कहिए? पद्मनाभजी ने कहा था_ आज से पंद्रह साल पहले मेरा एक गीत ‘मितणी लो काहाकु कहिबी दुःख (सखी, किससे कहूं दुःख अपना) बहुत लोकप्रिय हुआ था, शायद आपको याद होगा। लोकगीत पर आधारित उस गाने का एक रिकॉर्ड एच.एम.वी. ने भी निकाला था। उस एल.पी. रिकॉर्ड में आठ गाने थे। बहुत दिनों से वह रिकॉर्ड अब बाजार में मिल नहीं रहा है। उसे अगर कैसेट के रूप में निकाला जाए.....। गदाधर बाबु ने कहा_ पंद्रह साल पहले की चीज अब नहीं चलती। यह ए.आर. रहमान और बाबा सहगल का जमाना है। ओडिया संगीत की दूनिया में वैसा कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आता है तो आगे ओर कोई गाना चलेगा नहीं इस इंडस्ट्री में। आप ही कहिए इला अरुण के ‘वोट फॉर भांगड़ा’ जैसे गीतों को टक्कर देने वाला कोई गीत है ओड़िया में। चाहे आप कुछ भी कहिए इन रोते-दुखते गीतों ने ही हमारा मार्केट बरबाद किया हुआ है। मेधा को बड़ा बुरा लगा था। पद्मनाभ बाबु को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कृत कर चुकी है। वे ओड़िशा के अव्वल दर्जे के कलाकार माने जाते हैं। गदाधर बाबु उनसे जरा ओर इज्जत से पेश आ सकते थे। गदाधर बाबु ने इस बार मेधा की ओर देखते हुए पूछा_ अच्छा किसने लिखी है चिट्ठी हमें? पं. रामकृष्ण आचार्य ने। क्या लिखा है उन्होंने कहते हुए उन्होंने हाथ बढ़ाकर चिट्ठी ले ली। उसके बाद कहा था_ इस बिजनेस मंध कोई फायदा नहीं है। अव्वल तो टी.वी. के इस जमाने में कैसेट खरीदता कौन है। इसके अलावा हिंदी गानों की ऐसी धूम है कि ओड़िया गानों के लिए मार्केट बचा ही नहीं है। इन्हें तो पहचानती हैं आप। ये हैं पद्मनाभ बाबु। दो साल पहले हमने इनका एक कैसेट निकाला था। अब तक सौ कैसेट बिके हैं या नहीं यह बताना मुश्किल है। मेधा को बड़ा बुरा लगा था। फिर भी सिर्फ उसने यही कहा कि अनिरुद्ध दास के बहुत कैसेट निकल रहे हैं। गदा बाबु चुप हो गए थे। लोगों को कोई पसंद आ जाता है तो आ जाता है, उसमें हम क्या कर सकते हैं। देखिए बाजार की डिमांड पर ही हम काम हाथ में लेते हैं। नए कलाकारों को लेकर कोई रिस्क नहीं लेना चाहते हम। हमारे भी बच्चे हैं हुजूर। इस आदमी की चिकनी और मतलबी बातों की सच्चाई को भांपते हुए मेधा समझ गई कि यह आदमी बड़ा घाघ है। उसे अब लगने लगा था कि बहुत हो गया, अब ओर नहीं। उसने कहा_ अच्छा फिर मिलते हैं। गदाधर बाबु ने कहा_ अच्छा ठीक है। मेधा लौट आई थी अपने बुआ के घर। सोच रही थी शाम को जाकर गुरुजी को गदाधर बाबु की सारी बातें बता देगी और अपने घर लौट जाएगी। शाम को गुरुजी ने उसकी सारी बातें सुनकर चुप रह गए थे। फिर बोले_आजकल खुद की जेब से पैसे खर्च करके ही कैसेट निकालने पड़ते हैं। क्या तू रिकॉर्डिंग का खर्च उठा पाएगी। पहले तो ऐसा न था। पहले न था पर अब ऐसा ही है, क्या किया जाए। जाते-जाते गुरुजी ने उसके सामने भगवत गीता को धुन के साथ गाने का प्रस्ताव रखा। यह उनके बड़े दिनों की इच्छा थी। मेधा खुद को पहले इसके लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं कर पाई थी। बड़ा मुश्किल काम था यह। गुरुजी ने कहा_इसमें डरने की क्या बात है। बिना तैयारी के कुछ भी नहीं होता है। तेरे साथ रचिता भी गाएगी। भास्कर को पैसे खर्च करने में आपत्ती न थी। पर वो यह नहीं चाहता था कि कोई ऐसा कैसेट बने जिसके श्रोताओं का दायरा सीमित हो। भगवत गीता का कैसेट सुनने वाले भला कितने लोग होगें। ऐसे कैसेट सिर्फ बड़े-बड़े गायकों के नाम पर ही चलते हैं, समझाया था उसने मेधा को। मेधा ने कहा था_ मेरा पहला कैसेट निकल रहा है और वह भी कुछ हटकर, तुम्हें खुशी होनी चाहिए। कोई कम मेहनत नहीं करनी पड़ रही मुझे। गुरुजी जिस प्रकार डांटते हैं उसे तुम देखते तो तुरंत बंद करा देते यह संगीत प्रशिक्षण। असल में मेधा को बड़ी कड़ी मेहनत करनी पड़ रही थी। खाने-पीने का कोई ठिकाना न था। गुरुजी के मकान से रानीहाट में स्थित अपनी बुआ के घर रोज रिक्शे में आना-जाना करना पड़ता था। उस पर बुआजी का किराए का मकान। गाने के लिए आकर उनके मकान पर रहना मेधा को बड़ा नागवार गुजरता था। अगर वो शादीशुदा ना होती तो अलग बात थी। पर शादी के बाद बुआ के घर में उसे खुद को मेहमान की तरह लगता था। पता नहीं क्या सोच रहीं होंगी वह। एक-आध बार बुआ भी उससे पूछ चुकी थी कि भास्कर कैसे चल रहा होगा उसके बिना। संभवतः ओडिया संस्कृति अभी भी यह स्वीकार नहीं कर पाती थी कि एक औरत भी कैरियरिस्ट हो सकती है। किसी मध्यम वर्गीय परिवार का कोई व्यक्ति यह सोच भी नहीं पाता कि एक शादीशुदा औरत अपने पति को दो वक्त खाने को ना देकर, तुलसी के चौरे पर धूपबत्ती छोड़कर किसी अनजाने शहर में यहां-वहां क्यों भटकती फिरेगी भला? यही सोचकर कि वे पुराने खयालातों की है, मेधा ने बुआ की बात को इतनी गंभीरता से नहीं लिया था। ना ही मां की तरह उनसे बहस की थी बल्कि सिर्फ यही कहा था कि हां, भास्कर को थोड़ी परेशानी तो होती ही होगी। हां, बस अब कुछ दिनों की ही तो बात है, रिकॉर्ड खत्म होते ही चली जाऊंगी। रचिता को पहले-पहल इतना पसंद नहीं करती थी मेधा। लड़की में थोड़ा अंहकार का भाव था। रुठना-विचरना मानो उसके स्वभाव में शामिल था। बात-बात में गुरुजी के गले पड़ना, कहीं कुछ गलती हो जाए तो लंबी जीभ निकालकर, हे भगवान कहकर चिल्लाना, मेधा को बड़ा आश्चर्य होता था कि कैसे यह लड़की गुरु-गंभीर स्वर में संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण करेगी। ऐसी बात नहीं है कि रचिता मेधा से सलीके से पेश नहीं आती थी बल्कि दीदी- दीदी कहकर अपनी तरफ से यथासंभव आंतरिकता प्रकट करने की कोशिश करती थी। एक बार उसने मेधा को अपने घर पर आमंत्रित किया। घर के बरामदे में उसे बैठाकर अंदर चली गई थी वह कुछ देर के लिए। मेधा को पता नहीं क्यों उसके घर के अंदर बड़ी घुटन सी महसूस हुई थी। थोड़ा डर भी लगा था। पुराने अंग्रेज़ों के जमाने जैसा ऊंचा सा मकान था उसका। दीवारों में चारों तरफ कांच की बड़ी- बड़ी अलमारियां। सारी अलमारियों में मोटी जिल्दबंद किताबें भरी हुईं थीं। बीच में एक सेक्रेटेरियट टेबल। ऐसा लग रहा था मानों चारो तरफ से किताबें टेबल को दबोच कर इंसान कि तरह दबी हंसी में हंस रही हों। मेधा से मानो जैसे पूछ रही हों_ तू है किस खेत की मूली। पहले भी वो कई लाइब्रेरियां देख चुकी है पर कभी उसे ऐसा अनुभव नहीं हुआ। लगता था मानो कानून की ये भीमकाय किताबें दम घोंटने के लिए उसकी तरफ दौड़ी चली आ रही हैं। रचिता भीतर से आकर बोली_ मां अस्पताल से लौटी नहीं हैं। हमारे घर में कब किससे किसकी मुलाकात हो पाएगी कहना मुश्किल है। मां अस्पताल, बाबा कोर्ट और मैं घर पर। है न मजेदार बात। वो इस स्थिति को चाहे मजेदार कहती हो पर उसके कहने के अंदाज से यह पता चल रहा था कि उसे परिवार में यह अकेलापन पसंद नहीं। रचिता ने उससे कहा_ दीदी तुम बैठो, मैं नूडल्स बनाकर लाती हूं, दोनों खाएगें। वह सोचने लगी कि रचिता उसे छोड़कर अब अंदर चली जाएगी और फिर ये किताबें उसे दबोचने के लिए बढ़ी चली आएगीं। मेधा ने कहा_ नहीं रचिता, बुआजी इंतजार कर रही होगीं। मैं चलती हूं। फिर कभी आऊगीं। रचिता ने बड़े उदास स्वर में कहा_ ठीक है। उसके बाद वह मेधा के साथ दरवाजे तक आकर उसने एक रिक्शे को आवाज़ लगाई। वो दरवाजे पर खड़ी होकर शायद तब तक मेधा को निहारती रही जब तक कि वो नजरों से ओझल ना हो गई। मेधा सोच रही थी यह ठीक नहीं हुआ, उस लड़की को किताबों की डरावनी दूनिया में अकेला छोड़कर आना। फिर सोचा, खैर बचपन से रचिता देखती आ रही होगी अपराधी-अपराध, आईन-कानून, झूठ-सच, चालकी और फरेब से भरी इस दूनिया को। उसका दम घुटने लगा इससे। शनेः शनेः रचिता के प्रति उसका जो पुर्वाग्रह था वो बदलने लगा था और उसे लगने लगा था कि वो उससे प्यार कर पाएगी। जिस दिन उसके गाने कि रिकॉर्डिंग होनी थी उस दिन मेधा चंडी के मंदिर में गई थी दर्शन के लिए फिर भी उसे वैसा ही डर लग रहा था जैसाकि परीक्षा हॉल में जाने से पहले हर विद्यार्थी को लगता है। नहीं, कलकत्ते के कार्यक्रम के जैसी कोई भीड़-भाड़ यहां न थी या कोई माहिर संगीतज्ञ पास बैठा था जो कि उसके गाने की ऊंच-नीच निकालता। बड़ी सहजता से गीतों के विश्वरुप दर्शन वाले अध्याय का कैसेट तैयार हुआ। गुरुजी इसके श्लोकों को बड़े सुंदर स्वरों में ढाला था जिससे यह बड़ा सुमधुर बन पड़ा था_ सखेती मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण, हे यादव, हे सखेती अजानता महीमानं तवेदं मया प्रमादात प्रणयेन वापी। श्लोकों को गाते हुए गुरुजी बड़े भावुक हो जाते थे। गाने की रिकॉर्डिंग पूरी हो जाने पर मेधा के अंदर जो अभावबोध था वो हालांकि भर गया परंतु एक नई चिंता आकर खड़ी हो गई थी। इतने पैसे खर्च हो रहे हैं पर लोगों की नजर में आएगा या नहीं यह कैसेट। प्रचार-प्रसार एवं अच्छे-बुरे की आशा-आशंका ने उसे एक ओर तनाव की ओर ढकेल दिया था। पूरे कैसेट के लिए सात-आठ हजार रूपये खर्च हो चुके थे पर गुरुजी को देने के नाम पर उसने क्या दिया था? वागिंरीपोषी (ओडिशा की एक जगह का नाम) का असली रेशम का कुर्ता, बस। रूपये रखा लिफ़ाफा लौटा दिया था गुरुजी ने। इसका मैं क्या करुं? उनकी हंसी में स्नेह का स्पर्श था। गुरुजी के चेहरे को देखकर वो ओर कुछ बोल नहीं पाई थी। उसे कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ था गुरुजी के इस व्यवहार पर बल्कि मन ही मन उसने यह सोचा कि शायद इसलिए गुरुजी के जीवन में यह दारिद्रय है। सिर्फ़ प्रतिभा से ही तो बात नहीं बनती। प्रतिभा के ऊपर लेबल और दाम भी लिखना पड़ता है। आपकी फीस क्या है गुरुजी। गुरुजी ने हंसते हुए और उसका सिर सहलाते हुए कहा_ ठीक है, ठीक है, रख इसे अपने पास। उस दिनको वो भूल नहीं पाई है जिस दिन भास्कर अपने हाथ में पांच कैसेट लेकर लौटा था कटक से और उससे कहा था_ ये देखो, तुम्हारे सारे कैसेट। भास्कर के हाथों से कैसेट लेकर मेधा बेहद खुशी से चारों तरफ से उसे बड़े ध्यान से देखने लगी। कैसेट के सामने भगवान का फोटो और नीचे कैसेट कंपनी का नाम बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था। तब उसका नाम कहां है। अंदर की तरफ बीत्ते भर की जगह में छोटे छोटे अक्षरों में लिखा हुआ था उसका नाम। बड़ा दुःख हुआ था उसे यह देखकर। नाम इतने छोटे अक्षरों में लिखा हुआ था कि किसी की नजर में आएगा या नहीं कहना मुश्किल था। दिन भर मेधा की आवाज गूंजने लगी घर में। कैसेट एक बार खत्म होने पर दोबारा चालू कर देती थी वह उसे। आज इस घर में जो गूंज रही है वो उसी की आवाज है। संस्कृत के श्लोकों को कितने सुंदर तरीके से गाया है उसने, किसी वैदिक युगीन नारी की तरह। वीणा की मधुर झंकार खूब पवित्र और गंभीरतापूर्ण लग रही थी। खूद अपनि प्रतिभा पर मंत्रमुग्ध हो गई थी वह। स्थानीय संगीत स्कुल के शिक्षकों को बुलाकर एक छोटी चाय पार्टी का आयोजन किया था उसने। गोस्वामी बाबु के लिए यह बड़े आश्चर्य की बात थी कि मेधा ने इतने दिनों तक ‘स्वर लहर’ के नाम से कैसेट निकालने के लिए रियाज़ किया पर कैसेट आखिर निकला ‘गीता’ पर। इन्होंने इस पर दुःख भी प्रकट किया कि पहले की गई सारी मेहनत बेकार हो गई। मेधा ने उन्हें समझाया था_ यह शुरुआत है, इसके बाद देखते हैं; उसकी भी रिकॉर्डिंग का इंतजाम करेगें। इन दिनों मेधा भूल गई थी कि भास्कर को लेकर भी उसका एक संसार है। भूल गई थी कि भास्कर के जीवन में उसकी भी कोई भूमिका है। भास्कर उसका उतना ही ध्यान आकर्षित करना चाहता था जितना कि वो आज तक उम्मीद करती आ रही थी। सब कुछ जानते समझते हुए भी जब तीन महीने बाद जगन्नाथपुरी संगीत सम्मेलन से बुलावा आया तो वह फिर से निकल पड़ी थी संसार को पीछे छोड़ते हुए। एक विशिष्ट उद्योग घराने के प्रायोजन में आयोजित किया जा रहा था यह सम्मेलन। इसमें मेधा को कोई गीत नहीं गाना था। केवल विशिष्ट अतिथि के रुप में आने-जाने के खर्चे के साथ अनुरोध का सम्मान करने की बात थी। इतनी बड़ी-बड़ी हस्तियों के मुलाकात होगी। राज्य के बाहर से भी एक-आध कलाकार आएगें। सम्मेलन की समाप्ति पर डिनर रखा गया था। उसी डिनर में उसकी मुलाकात हुई थी अनिरुद्ध के साथ। हाथ में शराब का पैग। अब वो पहले वाला चेहरा भी न था। आंखों में अंगूठे के आकार का दाग ऐसा लगता था मानो पूरे चेहरे पर काले बादलों की छाया पड़ी हो। उसे देखकर मेधा को तुरंत ध्यान में आया, उफ़ बेचारे के साथ बड़ी अनहोनी हो गई है। इतने लोगों के सामने पारिवारिक घटना को लेकर बातचीत करना उचित ना होगा। इसके अलावा अपनी ओर से अनिरुद्ध की तरफ आगे बढ़ने में उसे संकोच हो रहा था। अनिरुद्ध ने परंतु उसे देख लिया था। अरे मेधा, बहुत दिनों के बाद दिखाई दे रही हो। दूर से देखकर अनिरुद्ध ने कहा था। करीब से एक कुर्सी खींच कर वो मेधा के पास बैठ गया। और अपने ग्लास को हल्का सा झुकाते हुए कहा था_ तुम्हारी कोल्ड ड्रिंक्स में जरा सी मिला दूं। पूरे समय वो मेधा के ईर्द-गिर्द घूमता रहा बारंबार यही कह रहा था_ कहो तो तुम्हारी कोल्ड ड्रिंक्स में जरा सी मिला दूं। मेधा को पता था कि अभी वो नशे में है। अचानक अनिरुद्ध अपना ग्लास लेकर खड़ा हो गया और ऊंची आवाज में चिल्लाने लगा_ अटेनशन प्लीज, अटेनशन प्लीज। ता धिन धिनाक धिन ना धिरे ना धिन। ता धिन धिनाक धिन ना धिरे ना धिन। मेधा के अलावा किसी ने भी उसकी ओर देखा न था। फिर से चिल्लाया था अनिरुद्ध_ अटेनशन प्लीज, भाईयों जरा शांत होकर बैठें। पर उसके कदम स्थिर न थे। उसके दोनों पांव उसका कहा नहीं मान रहे थे। उसने शुरु किया_ इनका कैसेट सुना है आपने? क्या इसमें संस्कृत का उच्चारण ठीक है? मेधा की भगवत गीता शुद्ध है? उच्चारण में शुद्धता नहीं है, है न? शर्मिदंगी में मेधा का चेहरा लाल हो गया था। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ अनिरुद्ध का यह व्यवहार देखकर। ऐसा एक ड्रामा उसका यहां इंतजार कर रहा है, इसकी उसे आशा न थी। उसे इतने लोगों के सामने अपमानित किया जा रहा है, और यह सब कर भी कौन रहा है, अनिरुद्ध। मेधा ने कोई जवाब नहीं दिया। पर कुछ देर में उसे घुटन सी महसूस होने लगी। संगीत की दुनिया का क्रेज बन चुके इस लड़खड़ाते पांव के नौजवान से उसकी यह कहने की इच्छा होने लगी_ “तु भी मुझसे इर्ष्या करता है अनिरुद्ध, आज तक तो मुझे ही तुझसे बड़ी इर्ष्या थी।” (11) पत्राचार पहले ही की तरह जारी था उनमें। हालांकि आजकल हर सप्ताह कोई किसी से चिट्ठी की उम्मीद नही करते थे। बीस बाईस दिनों में या महीने में एक-आध चिट्ठी अवश्य मिल जाया करती थी। उन सभी ख़तों को मेधा ने फाईल में सहेज कर रखा था। भास्कर को बड़ी हैरत होती थी_ ये कैसा मित्र है तुम्हारा। दोस्त के लिए दोस्त जान तक दे देता है। सबसे बड़ी बात यह है कि संगीत क्षेत्र में तुम दोनों साथ में काम करे हो। तुम्हारे लिए तो उसने कुछ नहीं किया। मेधा कहती थी_ मित्र हमेशा मित्र ही होता है, उससे अगर किसी तरह की अपेक्षा की जाती है तो फिर वो मित्रता कहां रही? भास्कर ने कहा था_ हां भई, मित्रता तो कोई तुमसे ही सीखे। क्या भास्कर उस पर शक करता है? पर उसके व्यवहार में तो ऐसी कोई बात नहीं देखी है मेधा ने। तब भास्कर क्या सोचता है मेधा के साल दो साल पहले गीता के श्लोकों पर निकले कैसेट को लेकर। उसका फिर कोई नया संस्करण ही नहीं निकला। और जो पहला निकला भी तो खुद अपनी जेब से पैसे खर्च कर। फिर भास्कर बीच-बीच में कहता है_ इन चिट्ठियों को यूं सहेज कर रख रही हो, फिर इनमें दीमक तो न लगा दोगी। मेधा दुःखी होकर कहती थी_ तुम क्या सोचते हो तुम्हारी उन चिट्ठियों को मैंने जानबुझकर दीमक लगवा दी। मुझे बताओ संसार में कौन सी बस्तु स्थाई है भला। यह शरीर भी एक दिन मिट्टी में ही मिल जाएगा। भास्कर ने कुछ न कहता था। पुरानी चिट्ठियां चाहे तो दीमक लगकर नष्ट हो जातीं परंतु उन्हें जलाकर किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना सही नहीं हुआ। चिट्ठियों पर भास्कर का एकाधिकार तो न था। तब इस पर उसे इतना गुस्सा क्यों आया। भास्कर के मन में कोई नई बात तो नहीं है? मेधा की बेहद आजादीपसंद स्वभाव एवं विचलित मन के कारण कभी उसे खो देने का भय तो नहीं है उसके मन में? आखिर क्या कारण कि वो कभी-कभी इस तरह की बातें करता है। अगले पल मेधा को लगता था कि उसने भास्कर को गलत समझा है। हो सकता है कि वो ये बातें इतना सोच समझकर ना बोलता हो। मेधा से वो प्यार करता है इसलिए चाहता है उसकी निरंतर प्रगति। उसकी तनहा जिंदगी में रंग भर देना चाहता है वो। वरना भास्कर उससे ये ना कहता कि देखो ईश्वर ने तुम्हें बच्चे नहीं दिए, पर क्यों; क्या तुम जानती हो। तुम्हें उसने किसी ओर उद्देश्य के लिए बनाया है। वो तुमसे कुछ ओर ही करवाना चाहता है। शायद वो यही चाहता हो कि तुम अपनी जिंदगी संगीत के लिए समर्पित कर दो। भास्कर उसे ले गया था अनिरुद्ध के मकान पर। वो मेधा से कहता था देखो_ ये चिट्ठी-पत्री से कुछ होने वाला नहीं है। तुम्हे जो करना है खुलकर बोलो। हमेशा डेशिंग बनके की कोशिश करो। इस बार भुवनेश्वर दौरे पर जाते वक्त भास्कर के साथ गई थी मेधा। एक होटल में ठहरने के बाद मेधा ने सोचा कि अनिरुद्ध को फ़ोन कर दे? अब तो वे उसके शहर में ही हैं। भास्कर ने उससे कहा था_ देखो मेरा यहां पर तीन दिन का काम है, अगर इस बीच तुम भास्कर के साथ मिलकर कुछ कैसेट बगैरह निकालने की व्यवस्था कर सकती हो तो करो। और कुछ नहीं तो तुम रेड़ियो स्टेशन पर ही जाकर क्यों कोशिश नहीं करती हो। टीवी का चलन आजकल ज्यादा है। अनिरुद्ध से पूछो वहां कोई उसकी पहचान का हो तो। फ़ोन कॉल के बाद अनिरुद्ध वहां आया था। बहुत समय तक गपशप की थी उसने कमरे में। फिर भी मेधा उससे कुछ कह नहीं पाई थी। लौटते वक्त उसने दोनों को खाने पर आमंत्रित किया था। अनिरुद्ध का मकान एक नया तैयार हुआ डूप्लेक्स था। किराए का मकान है या पिताजी से मिला हुआ तोहफ़ा, यह उससे पूछ नहीं पाई थी मेधा। इतने बड़े मकान में वो सिर्फ़ एक नौकर के साथ अकेला रहता था। उसने यही कहा था_ इस घर में मैं अभी हाल ही में आया हूं। पुराने मकान में आह.... उसका वह चेहरा, कभी किसी पूरी तरह जले हुए व्यक्ति को तुमने देखा है मेधा? उसकी खोपड़ी के ऊपर के सारे बाल जल गए थे, दोनों होंठ भी न थे, सिर्फ दांत बचे थे चेहरे में। ऊंगलियां, पैर, स्तन सब कुछ जल गए थे। क्या भयंकर था वो रुप। मौत का इतना भयंकर रूप तुमने कभी देखा न होगा। बातें करते-करते उसने आले से एक बोतल निकाल ली थी। नौकर को बुलाकर ग्लास, बर्फ़, और ओपनर मंगा लिए थे उसने। पुलीस कहती थी मैंने उसे मारकर और उस पर मिट्टी का तेल डालकर जला दिया। क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि मैंने खुद अपनी बीबी को मार डाला होगा। मैं अब भी उन जली पलकों वाली आंखों को भूल नहीं पाता हूं। नहीं, मेधा ने जले हुए इंसान को कभी नहीं देखा। उसने अपनी जिंदगी के सिर्फ़ एक ही लाश को करीब से देखा है और वो भी दादी के शब को। भावशुन्य एक चेहरा। जैसे खूब गहरी नींद में सोई हों और हिलाकर उन्हें उठाना ठीक नहीं होगा। भास्कर ने कहा था_ मैंने एक अधजली लाश देखी थी शम्शान में। जलती हुई लाश अचानक चिता की लकड़ियों से उठ खड़ी हुई थी। वैसा होता है, तुम्हें सोड़ा चाहिए- अनिरुद्ध ने दो ग्लासों में व्हिस्की डालते हुए भास्कर से पूछा था। उसके बाद कहा था_ वैसा होता है यदि शव पर ठीक से लकड़ियां ना लादी गई हों तो। पर वो लाश तुम्हारे किसी रिश्तेदार की तो नहीं थी ना। नहीं, वो मेरे एक दोस्त के पिता थे और मैं उनकी शवयात्रा में शामिल हुआ था। भास्कर बहुत धीरे-धीरे पी रहा था। अनिरुद्ध का ग्लास तब तक लगभग खत्म हो चुका था। अनिरुद्ध कह रहा था_ मेरी बीबी यह साबित करना चाहती थी कि मैं अयोग्य हूं, मैं अपनी बीबी को पीटता हूं। उसे तकलीफ़ देता हूं। इसलिए वो मर गई। कहते हुए उसने ग्लास में बची हुई व्हिस्की खाली कर दी। उसके बाद उसने भास्कर से कहा था_ अरे, ऐसे क्या पी रहे हो यार। एक और पैग बनाएगें, जल्दी खत्म करो। अनिरुद्ध का नौकर इसी बीच दो पेप्सी और एक ओर शराब की बोतल रखकर जा चुका था। नौकर को डांटा था अनिरुद्ध ने_ तुमसे पहले कहा नहीं था कि पेप्सी की दो बोतल लाने के लिए। मेधा चुपचाप बैठी हुई थी। “बोतल ले आया, ग्लास कहां है, स्साले दिमाग में सिर्फ़ गोबर भरा हुआ है”। लड़के ने तुरंत ग्लास लाकर रख दिया। अनिरुद्ध ने पूछा था_ खाना बन गया? लड़के ने कहा था_ सिर्फ रोटी बनानी बाकि है। उसके जाने के बाद अनिरुद्ध ने ग्लास में शराब डाली और उसमें पानी और बर्फ़ के टुकड़े भी मिलाए। मेधा के लिए ग्लास में पेप्सी डालते हुए उसने कहा था_ अगर तुम लेती होती तो मैं तुम्हारे लिए शैंपेन मंगाता। मेधा सिर्फ हंसकर रह गई थी। अनिरुद्ध कहने लगा_ उस दिन कलकत्ते में मैं अच्छा गा सकता था पर वहां तुम्हारा पर्फरमेंश देखकर इतना परेशान हुआ कि जानबुझकर मैंने ऐसा गाया। अब आठ-दस साल हो गए उन बातों को फिर वे गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रहा है अनिरुद्ध। इसके अलावा मेधा ने अच्छा नहीं गाया इसलिए वो भला क्यों जानबुझकर बुरा गाएगा। मेधा को उसकी बातों पर हंसी आ रही थी और गुस्सा भी। कितना बड़बोला हो गया है ये आजकल। उसके बाद अनिरुद्ध ने एक कैसेट निकाला और मेधा के सामने रखते हुए बोला_इसे सुनना, लोकगीत और शास्त्रीय संगीत का बड़ा अनोखा मिश्रण है। पागल, मन ही मन सोचा था मेधा ने। फिर उससे पूछा तुम अपने घरवालों के साथ क्यों नहीं रहते हो? उस भीड़ में? नहीं वहां रहना मुश्किल है। तुम्हे पता है, मेरे पिता ने एक ठेकेदार के यहां मुंशी के रूप में काम शुरु किया था। अब वे खुद एक ‘ए’ क्लास ठेकेदार हैं। ईंट, बालू, सिमेंट, सरिया, आदि के साथ उनका उठना- बैठना है। संगीत से उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। मुझे तो लगता है वे जब मुंशी थे तब भी मजदूरिनों को देखकर कभी सीटी मारी होगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। उसने यह बात कुछ इस लहज़े में कही कि वे दोनों ठहाका लगाकर हंसने लगे। अनिरुद्ध ने खड़े होकर अलमारी से एक फाईल निकाली और कहने लगा_ मैं कविताएं लिखता हूं आजकल। तुम सुनोगी मेरी कविताएं। इन कविताओं का अब एक संकलन निकलने वाला है। ठहरो, मैं तुम्हें पढ़कर सुनाता हूं। तब तक एक हाफॅ बोतल खत्म होकर दूसरी खोली जा चुकी थी। भास्कर ने कहा था_ बस, मेरे लिए अब ओर नहीं। अनि ने कहा_ अरे अभी कहां। एक ओर पेग हो जाए। बेल बजाकर उसने नौकर से बर्फ़ मंगाई थी। मेधा घूम घूम कर उसका मकान देखने लगी। बॉलकनी में बड़ी अच्छी हवा आ रही थी। मेधा ने आकर उनसे कहा_ चलो बॉलकनी में बैठते हैं। अनि ने कहा था_ पहले तुम मेरी कविता सुन लो फिर चलेगें बॉलकनी में। भास्कर सोफ़े पर अधलेटा हुआ था। मेधा ने अपनी कुर्सी एक तरफ खींच ली। अनिरुद्ध ने कहा_ तो मैं शुरु करता हूं_ छोटे छोटे कागज के टूकड़े उड़ा दिए मैंने हवा में तो बन गए वे बादल छोटी छोटी सांसें महका दी अपनी बरस गए क्षितिज सारे छोटी-छोटी आंसू की बूंदें अंजुरी खोल बहा दी मैंने काट कर पहाड़ झरना बन गई वे बूंदें । बड़ी ऊंची आवाज में पढ़ रहा था वो यह सब। मानो किसी मंच पर खड़े होकर पढ़ रहा हो। मेध ने पूछा था_ इस गीत को क्या तुम कोई स्वर देना चाहोगे। नहीं, नहीं, ये आधुनिक मुक्त छंद हैं। एक और सुनोगे, बड़े प्यार से पूछा था उसने। सुनो_ “चाबी, मकान बागिचा, कुत्ता चावल,सिंदुर सब हैं दूर अंधेरे की विषम डोर मकड़ी के जाले ये सब हैं मेरे हिस्से में......।” आधा पौना घंटा तक वो इसी तरह की कविताएं पढ़ता रहा। अब तक भास्कर ऊंघने लगा था और मेधा बोर हो चुकी थी। मेधा ऊबकर बालकनी में जाने के बहाने से चली गई और भास्कर पलटकर लंबे सोफ़े पर सो गया। अनिरुद्ध ने अपनी फाईल सहेज कर रख दी और नौकर लड़के को बुलाने के लिए बेल बजाने लगा। लड़के ने आने पर पूछा_ खाने की टेबल लगा दी। हां, लगाता हूं कहकर लड़का चला गया। तीनों के लिए खाना परोसा गया पर मेधा के छोड़ उन दोनों ने खाना नहीं खाया। अधखाया चिकन, अक्षत अवस्था में रखा हुआ रायता और दाल में गिरकर फूल चुकी रोटियां पड़ी रह गयीं थी प्लेट में। भास्कर ने कहा था_ मैं तो चला, गुडबॉय और वह दरवाजे की ओर बढ़ने लगा। भास्कर की हालत चलकर कहीं जाने की न थी इसलिए अनिरुद्ध ने उसे ले जाकर गेस्टरूम में सुला दिया। मेधा ने कहा था_ बहुत रात हो चुकी है। हमें लौट जाना चाहिए। पागल, भास्कर को इस हालत में छोड़कर। गेस्टरूम का दरवाजा उढाल दिया था अनिरुद्ध ने। चलते हुए उसके कदम लड़खड़ा रहे थे। उसी लड़खड़ाते कदमों से आगे बढ़ते हुए उसने मेधा के होंठों पर एक चुंबन देते हुए कहा_ अब हम आजाद हैं। मतलब? आजाद मतलब आजाद। तुम्हारे होंठ बड़े सुंदर हैं, मैंने कलकत्ते से ही मार्क की थी यह बात, कहा था अनिरुद्ध ने। यह सब ठीक नहीं है, कहा था मेधा ने पर वो खुद को अनिरुद्ध के आगोश से आजाद नहीं कर पाई थी। हम लोगों की बड़ी पुरानी पहचान है। दस साल तो हो गए होगें ना, पूछा था अनि ने। भास्कर के साथ मेरा बीस साल का परिचय है, कहा था मेधा ने। उसके पूरे शरीर पर हाथ फिराते हुए उसने कहा_ तुम्हारे सारे अंग बड़े सुंदर हैं। न जाने वो कौन सा मंत्र पढ़ रहा था कि वह पिघलने लगी थी। अनि ने कहा था_ चलो हम शादी कर लेते हैं मेधा। तभी बड़ी अनोखी बात घटित हुई, बारंबार लहरे अपने उन्माद में आकर भी साहिल से मिलने में असफल हो रही थीं। बल्कि किंकर्तव्यविमूढ़ बनी मेधा ने तब तक अपने मन के खिड़की-दरवाजे खोल दिए थे। बेबस होकर मेधा ने अपने मन को अपने दायरों में समेटना शुरु कर दिया। पता नहीं, वहीं थम सा गया सब कुछ। हर हुंकार जैसे हवा के साथ बह गई थी। मेधा खुद को उससे आजाद कर तूफान की तरह बाहर चली गई थी और गेस्ट-रूम में भास्कर के किनारे खुद के लिए थोड़ी जगह बना ली थी उसने। (12) अगले दिन भास्कर के सेक्रेटेरियट चले जाने के बाद मेधा एकदम अकेली हो गई थी, सोचा कि जाकर नीचे रिसेप्शन से अनिरुद्ध को फ़ोन करे क्योंकि सुबह उसके घर से निकलते वक्त खास कोई बातचीत नहीं हुई थी। फिर सोचा कि रहने दे, अनिरुद्ध तो आएगा ही, उसे आज कहीं लंच पर ले जाने की बात कही थी उसने। होटल के रूम सर्विस को बुलाकर शेंपु का पाऊच मंगाया था उसने। आधे घंटे तक खूब जी भर कर नहाई थी वो। पिछली रात की घटना उसे किसी सपने की तरह लग रही थी। जीवन के हर मोड़ पर घट रही इन आकस्मिक घटनाओं के बारे में सोचकर बार-बार सिहर उठती थी वो। आश्चर्य भी हो रहा था उसे। होटल की बालकनी में खड़ी होकर बाल सूखाते-सूखाते बीच रास्ते पर दौड़ रही अनगिनत गाड़ियों में एक लाल मारूति को खोज रही थी वह मन ही मन। आह, बेचारा अनिरुद्ध कितना अकेला हो गया है अपनी बीबी की मौत बाद। उसे इतना बड़ा मकान लेना नहीं चाहिए था। इतने बड़े मकान में तो गुम हो जाने जैसा एहसास होता है। आज मिलने पर अनिरुद्ध से यह बात कहेगी, सोचा था मेधा ने। उसके चेहरे पर पाऊडर, माथे पर बिंदी और होठों पर हल्कि लिपस्टिक लगाई थी। आज तक उसने कभी अपने होठों को ध्यान से नहीं देखा था कि वह चौड़े हैं या बड़े। पतले हैं या भरे हुए। बहुत पी रहा है अनिरुद्ध आजकल। आज उससे कहना ही पड़ेगा कि एक साधक होकर यह क्या कर रहा है वह। पूछेगी उससे कि संगीत से बड़ा कोई और नशा है भला। मेधा ने जो साड़ी पहनी थी उसे पसंद नहीं आई थी और इसलिए उसने उसे बदलकर एक हल्की रंग की साड़ी पहनी थी सूटकेस से निकाल कर। बड़ा आश्चर्य हो रहा था उसे कि दोनों में एक दूसरे के लिए इतनी इर्ष्या होते हुए भी कैसे यह दोस्ती निभ पा रही है। मेधा ने सोचा था कि वह पूछेगी उससे कि अगर वो उसे बाकई में चाहता है तो इस बात का कोई संकेत क्यों नहीं दिया था कलकत्ते में। बहुत देर उसने अनिरुद्ध का इंतजार किया पर उसका कोई पता न था। यहां तक कि एक बार फ़ोन तक नहीं किया उसने इस दौरान। सोचा कि चलो अब अपनी और से ही फ़ोन करके देखा जाए कि क्या कर रहा है अपना यह बोहमियान मित्र। रिसेप्शन में जाकर फ़ोन किया था उसने पर दूसरी तरफ से सिर्फ रिंग ही सुनाई दी थी उसे। कमरे में लौटने पर कमरा उसे काटने के लिए दौड़ता था। बस एक दिन और फिर वो लौट जाएगी अपने उस छोटे शहर को। फिर ना जाने कब मुलाकात होगी उसकी अनिरुद्ध के साथ। शायद अब वो लौट आया होगा अपने मकान में। अक बार फिर आकर फोन किया था उसने रिसेप्शन से। नहीं, इस बार भी फ़ोन सिर्फ रिंग होकर खामोश हो गया। किसी ने दौड़कर आकर उठाया नहीं था रिसिवर। परेशान मेधा क्या करे यही सोचकर लौट आई थी कमरे में। तभी पीछे से रूम सर्विस के लड़के की आवाज़ सुनाई दी_ आपका खाना कमरे में ले आऊं मैडम। नहीं, अभी नहीं थोड़ी देर बाद_ कहा था मेधा ने। भास्कर के साथ उसके प्यार के रिश्ते में इतनी जटिलता नहीं आई थी पहले कभी। या फिर वो भूल रही है वे सारे पुराने दिन। अनिरुद्ध के घर पहुंचकर उसे सरप्राइज देने पर कैसा रहेगा? सोचा था मेधा ने। फिर से एक बार रिसेप्शन में जाकर फ़ोन करने में उसे संकोच हो रहा था। बाहर बरामदे में एक छोटी बच्ची यहां-वहां दौड़कर खेल रही थी। मेधा के रूम का दरवाजा खुला होने पर वह पर्दे को पकड़कर झांकने लगी थी कमरे में। मेधा ने हंसकर हाथ के इशारे से उसे बुलाया। लड़की नहीं-नहीं कहते हुए सिर हिलाकर चली गई। पास के पब्लिक टेलीफोन बूथ पर जाकर फ़ोन कर आती तो कैसा रहता? कमरे के अंदर पड़े-पड़े बदन में बड़ी अकुलाहट जो रही थी उसे। कमरे में ताला लगा कर चाबी उसने रिसेप्शन में दे दी और जाते-जाते वहां कह गई कि अगर कोई मुझे खोजते हुए आता है तो उसे कहना कि इंतजार करे, मैं जरा यहीं पास से होकर आती हूं। मेधा फुटपाथ क दूकानों को लांघते हुए आगे निकल गई। रास्ते पर भागते हुए ट्रेफ़िक की ओर देखते हुए सावधानी से उसने रोड़ पार किया। उससे पहले दो-तीन लोग इंतजार कर रहे थे वहां फ़ोन के लिए। मेधा को बड़ा संकोच हुआ था। नहीं, इतने लोगों के सामने बात नहीं कर पाएगी वह। उसे बड़ी बेचैनी हुई थी। क्या लौट वो जाए होटल के कमरे में वापस। अपना मेकअप उतार दे और साड़ी बदलकर होटल के लड़के के हाथ अपना लंच कमरे में मंगाकर खा ले। फिर पंखा चलाकर सो जाए। उसने बड़े अनमने भाव से रिक्शे को आवाज दी थी। रिक्शे वाले को उसने अनिरुद्ध के घर का पता बताया था। पर क्यों बताया उसने यह पता? शायद वो थक चुकी थी और मन ही मन उसने सोच लिया था कि अनिरुद्ध से मिलकर उस पर गालियों की बौछार कर देगी। कल रात की घटना के बाद कहीं अनिरुद्ध उससे कन्नी तो नहीं काट रहा है या फिर कहीं उसका कोई ओर काम तो नहीं आ गया। मेधा को लगा कल रात अनिरुद्ध के लिए उसे इतना उदार होने की जरुरत नहीं थी। जरा सख्त होना चाहिए था उसे इस मामले में। कल रात अनिरुद्ध ने जो कुछ किया, क्या वो क्या मात्र एक नशे में धुत आदमी का काम था। अनि ने अगर कल इतनी शराब ना पी होती तो क्या वो मेधा के साथ इस तरह से पेश आता। मेधा ने उसपर क्यों गुस्सा नहीं दिखाया? क्या मेधा भी मन ही मन अनिरुद्ध से प्यार करती है। ऐसा प्यार क्या सही है? पर क्यों? भास्कर ने उसे क्या नहीं दिया है? अनिरुद्ध के साथ उसकी दस साल की जान-पहचान है और भास्कर से बीस साल की। कल रात से पहले अनिरुद्ध ने उससे कहा नहीं था कि वो उससे प्यार करता है जबकि भास्कर के साथ उसका प्यार का रिश्ता हाई स्कुल से चल रहा है। भास्कर की सारी प्रेरणा और सहयोग मेधा के लिए है। अनिरुद्ध के मन में मेधा के लिए इर्ष्या है, यह बात जगन्नाथ-पुरी के संगीत सम्मेलन से वह जान चुकी है। भास्कर के मन में उसके लिए निस्वार्थ प्रेम है। फिर मेधा ने कल रात क्यों विरोध नहीं किया उसका। इस तरह से वो भास्कर के साथ अन्याय कर रही है, यह बात उसके मन में क्यों नहीं आई। अपराधबोध के दुःख के बोझ से टूट क्यों नहीं गई वो। शादी से पहले जो मेधा सोचती थी कि सारी जिंदगी वो एक इंसान के साथ कैसे बिताएगी, क्या अभी भी उस बात पर विश्वास है उसे। क्या वो भास्कर के साथ घर बसाते-बसाते थक चुकी है और उसे आजादी चाहिए। मेधा सोचती है कि वो कम से कम कुकी के मुकाबले तो अच्छे से है। भास्कर चाहे उसे कार में सैर ना कराए, और ना ही एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए हवाई जहाज की टिकटें तैयार रखता हो। साल दो साल में एक बार विदेश जाने का शौक ना रखता हो पर कुकी के पति की तरह उसे एक पालतु जानवर की हैसियत से तो नहीं देखता वह। दसवीं की परीक्षा में क्यों थर्ड डिविजन हुआ था कहकर रात के एक बजे उठकर बेतरह पिटाई तो नहीं करता। कुकी, मेधा की सबसे छोटी बहन, अपने पति के स्टेटस के लिए कुछ अहंकारी और पति के व्यवहार के कुछ दुःखी लड़की। कभी-कभी वो मेधा से कहती_ “तुम बड़ी सुखी हो अपनी जिंदगी में।” नहीं, भास्कर को छोड़कर मेधा कहीं जा नहीं पाएगी। उसे पता है कि कोई और मेधा के मूड़ और मर्जी को इतनी अहमियत नहीं दे पाएगा। अनिरुद्ध तो बिल्कुल भी नहीं। इसलिए कल रात अनिरुद्ध के शादी के प्रस्ताव ने जरा भी उल्लासित नहीं किया था उसे। अगर नशे में ना होता तो क्या वो कह सकता था ऐसी बातें। अनिरुद्ध क्या भूल गया था कि शादी की उम्र को लांघ चुके हैं वे दोनों। ‘चलो हम शादी कर लेते हैं’ इस बात को याद कर मेधा के होंठों पर हंसी तैर आई थी। क्या वो अब भी सुंदर है, आकर्षक है? अनिरुद्ध उसके चैहरे पर फिदा है? तो फिर कल रात अनिरुद्ध की असफलता का कारण क्या था? कल रात का वो अनुभव मेधा के लिए अतृप्तिकर, असम्मानजनक, और दुःखदायी था। फिर भी वो एक अजीब सा एहसास था। ऐसा भी कुछ अभी उसकी जिंदगी में घट जाएगा, क्या ऐसा सोचा था उसने कभी। अभी भी कंधे में और कान के नीचे दर्द था उसके। कल रात को अनिरुद्ध क्यों नाकाम रहा था? बेहद नशे के कारण? या मेधा अंदर ही अंदर बूढ़ी हो चली है? क्या वो खो चुकी है अपना आकर्षण? मेधा को ये सारी बातें सोचकर अच्छा नहीं लग रहा था। अच्छा, वो अनिरुद्ध की बातें ही क्यों सोच रही है? भास्कर के बारे में तो नहीं सोच रही है वो। कहीं वो भास्कर के प्रति अन्याय तो नहीं कर रही है। भास्कर अगर ऐसा ही कुछ मेधा के साथ करता तो क्या वो उसे माफ़ कर देती? क्या उसने कभी सोचा है कि अगर कभी भास्कर ऐसा कुछ कर बैठता है तब वो क्या करेगी? रोएगी? झगड़ेगी उससे? गुस्से में मायके चली जाएगी। या फिर इसे सहजता से स्वीकार कर भास्कर को आजाद कर देगी। क्या वो कर पाएगी ऐसा? रिक्शा पहुंच गया था अनिरुद्ध के घर के सामने। ऐसी अनमनी और उलझी हुई मनोस्थिति में भी पता नहीं कैसे वो रिक्शे वाले को सही पता बता पाई थी। अंदर से दरवाजा बंद है मकान का। अनिरुद्ध तब शायद घर पर ही होगा। फिर क्यों नहीं आया वो मेधा के पास या फिर फ़ोन भी नहीं किया। क्या वो भूल गया है कि आज दोपहर को वो उसे लंच पर कहीं ले जाने वाला था। या फिर कल रात को जो कुछ घटा वो एक नशे में धुत इंसान का काम था और अब वो सब भूल चुका है? मेधा ने रिक्शेवाले को पैसे चुकाए थे और मकान की कॉलिंग बेल बजाई थी। नौकर लड़के ने खोला था दरवाजा। कल रात की घटना को कहीं इस लड़के ने देखा तो नहीं? कहीं वो मेधा के बारे में कोई गलतफहमी तो नहीं रखता है? मेधा को पता नहीं क्यों थोड़ा संकोच हुआ था उस लड़के से मुख़ातिब होते हुए। उसने पूछा था_ अनिरुद्ध? वो अपने दूसरे मकान में गए हुए हैं। दूसरा मकान? हां, वहां उनके मां-बाप रहते हैं। कब तक आएगें? अभी तो फो़न आया था उनका कि आज वो नहीं लौटेगें। गुस्से और नाराजगी में टूट गई थी मेधा। लौट आई थी वो। रोना आ रहा था उसे। छी, अपमान में डूबा हुआ महसूस कर रही थी खुद को वह। अगर किसी काम की बजह से जाना पड़ा उसे तो कम से कम फ़ोन तो कर ही सकता था। मेधा को पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि वो जानबुझ कर टाल गया था उसे। पर क्यों? क्या कल की उसकी असफलता के लिए? क्यों वो मेधा का सामना करने में हिचकिचा रहा है? पर ये सब क्या है? क्या उसे यह समझ में नहीं आता कि मेधा को पसंद नहीं यह सब? पर मेधा क्या चाहती है? क्यों आई थी वो अनिरुद्ध के इतने करीब। क्यों चल रहा था उनमें चिट्ठियों का आदान-प्रदान। संगीत के लिए। उनके संबंध में कहां है संगीत? ताल, लय, आरोह, अवरोह की कोई जगह नहीं। उनके संबंध में साधना की भी जगह नहीं और अनिरुद्ध शायद कभी उसे संगीत की दूनिया में आने भी नहीं देगा। उसके कैसेट निकलने नहीं देगा वह। गुरुजी ने उसकी जितनी मदद की है उसने उसकी एक चौथाई भी नहीं की है। फिर वो क्यों दौड़ी चली आई थी अनिरुद्ध के पास। अपने स्वाभिमान को तिलांजली देकर वह कैसे पिघल गई थी अनिरुद्ध के पास आकर? क्या ऐसा करना सही था? मेधा बड़े अनमने भाव से नजदीक के चौक के पास से बैठ गई थी बस में। कहां जाए वो? लेड़िज सीट पर पहले से दो महिलाएं बैठी थी। उसे देख वे जरा सरक गई थीं। बस कहां जा रही है, पूछा था उसने। ओल्ड टाऊन, उनमें से एक औरत ने कहा था। उसके मुंह से पायरिया की बदबू आ रही थी। अनिरुद्ध का इस तरह चुपचाप निकल जाना क्या उसके कंप्लेक्स को दर्शाता है? आज अगर वो मिलता तो वह उससे यही कहती कि इस तरह की बात कोई बड़ी अनहोनी नहीं है। कल रात की घटना के लिए इतने शर्मिंदा मत हो। अभी भी हम एक दूसरे के दोस्त हैं। तुम्हारी सारी सार्थकता और मेरी सारी निरर्थकता के दायरे में हम दोनों दोस्त हैं। क्या अनिरुद्ध की दोस्ती चाही थी मेधा ने? उसके जीवन में आखिर ऐसी क्या कमी थी जिसे भास्कर भर न पाया था और अनिरुद्ध उसे भर देता। पता नहीं है यह मेधा को। वो कह नहीं सकती निश्चित तौर पर कुछ भी। भास्कर ने बहुत कुछ किया है उसके लिए। उसके जीवन रूपी सागर में क्या नहीं भरा है उसने और क्या नहीं दिया है उसे। यंत्रणा? प्यार का अभाव? नफ़रत? उपेक्षा? फिर ऐसी क्या कमी रह गई उसमें जिसे अनिरुद्ध से ही भरना चाहती है वह। अनिरुद्ध स्वार्थी है। अनिरुद्ध अहंकारी है। अनिरुद्ध जो अपनी पत्नी के जीवन की कमी को भर नहीं पाया वो उसक जीवन की कमी को भरेगा, ऐसी उम्मीद कैसे कर सकती है वह। अनिरुद्ध के लिए उसके दिल में प्यार था या फिर प्रेम और नफ़रत मिश्रित एक अजीब रिश्ता था वह। इतनी नफ़रत और नापसंदगी के बावजूद भी अनिरुद्ध ने कैसे उसके दिल में जगह बना ली थी। ऐसा भी कोई अक्खड़ आदमी किसी के दिल में जगह बनाता है भला? नहीं, मेधा खुद एक ऐसी लड़की होने के कारण ही उसके साथ इस प्रकार की घटनाएं घटती हैं। मेधा ने खुद को ऐसे क्यों बनाया भला। अन्य पांच बहनों की तरह पति, स्वसुर, संगीत, संसार और सीमित आजादी को लेकर खुश नहीं रही क्यों? क्यों जिंदगी की सार्थकता अपने दायरों के बाहर खोजती रही वह। क्या जीवन का कोई अर्थ होता है जो सार्थकता और निरर्थकता का सवाल खड़ा करता है। उसके जन्म के पीछे क्या कोई ऐसा निर्दिष्ट तर्क था जो वो अपनी जिंदगी को खपा देती उस उद्देश्य के पीछे। जीवने में सार्थकता मिलने पर भला ऐसा क्या हो जाएगा मेधा का? क्या बदल जाएगा उसके आसपास का माहौल? उसका भास्कर? स्वसुर, जंगली शहर और निर्वासन? क्या कहीं ओर, किसी ओर तरह से, और किस प्रकार जीवन को जीए। वो जिंदगी क्या पूर्णता देगी उसे? तब क्या एक अभावबोध नहीं रह जाएगा उसके सीने में जिसे वो जान नहीं पाएगी। ना ही किसी ओर को बता पाएगी उस कमी के बारे में। टाऊन बस कब रुक रही थी और कब चल रही थी। कहां भीड़ बढ़ रही थी और कहां कम हो रही थी। कुछ पता नहीं था उसे। कंडक्टर ने जब टिकट के पैसे मांगे तो उसने पैसे थमा दिए थे उसके हाथ में। कंडक्टर बिना यह पूछे कि वो कहां जाएगी टिकट काटकर, टिकट और बचे पैसे लौटा दिए थे उसे। मेधा ने पैसे बिना गिने पर्स में डाल दिए थे। उसे भास्कर की याद आई थी। क्या वो सेक्रेटेरियट से लौट आया होगा। बस रुक गई थी कहीं पर। ड्राईवर उतर गया था और कंडक्टर भी। एक-एक कर लोग भी उतर गए थे। मेधा ने बाहर देखा। लिंगराज मंदिर दिखाई दे रहा था। अब उसे भी उतरना पड़ेगा। ऐसे ही किसी जगह पर सफर की रफ़्तार थम जाती है। रास्ता खत्म हो जाता है। बस रुक जाती है और वहां उतरना ही पड़ता है। तब जिंदगी में इतनी दौड़-धूप का क्या मतलब होता है। इस तरह जिंदगी यहां से वहां और वहां से यहां फिर कहीं ओर क्यों भागती रहती है। क्या मिलता है उसे? कहां पहुंचती है यह आखिरकर? कई दिनों से मेधा लिंगराज मंदिर नहीं आई थी। और ना ही पुराने भुवनेश्वर की तरफ ही आना हुआ था उसका। दोनों तरफ से खोमचेवालों का आकर्षक आह्वान। फूल और दीप वालों की पुकार को नकार कर, बंगाली टूरिस्टों को लांघते हुए, जूते स्टेंड पर चप्पल रखते हुए वो मंदिर पहुंची थी। इतनी कलाकारी से भरपुर मंदिर पर इतना रूखा, कर्कश और सूना क्यों? जिंदगी भी शायद इसी मंदिर की तरह है। माधुर्य, रूखापन, और खालीपन सब साथ-साथ लिए। जिंदगी से एक साथ हमारा इतना लगाव और अलगाव क्यों है? जैसे उसका और अनिरुद्ध का रिश्ता। नहीं, अब वो और अनिरुद्ध के बारे में नहीं सोचेगी। अब उसका लौट जाना ही सही होगा। एक बूढ़ा व्यक्ति उसके इंतजार में होगा। बी.पी. और ब्लड शुगर पता करना है। आंखों के मोतियाबिंद का भी ऑपरेशन करना होगा। कहीं किसी अनाथाश्रम में कोई बच्चा उसका इंतजार कर रहा होगा। उसे गोद लेना होगा। भास्कर शायद लौट आया होगा सेक्रेटेरियट से। उसे होटल में न पाकर परेशान हो रहा होगा वह। मेधा ने सोचा कि मंदिर से बाहर जाकर वो भास्कर को फ़ोन करेगी। भास्कर से कहेगी_ मैं लौट रही हूं, खूब जल्दी तुम्हारे पास लौट आऊंगी। तुम फ़िक्र मत करो। मैं तुमसे दूर नहीं जा सकती। क्या तुम सोच सकते हो, मैं जा पाऊंगी। मेधा ने जगमोहम मंदिर के परिसर में किसी मंदिर के दर्शन नहीं किए। वो लौट रही थी। पीछे से एक पंडे ने आवाज लगाई_ क्यों बहन जी मंदिर में आकर लिंगराज का दर्शन नहीं करोगी। कब से वो पंडा उसके पीछे लगा था, यह पता नहीं था मेधा को। उसने कोई जवाब नहीं दिया था; सिर्फ पलटकर मुस्कराई थी वह।