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मंगलवार, 4 जनवरी 2011

कितना आज़ तृषित मन मेरा....



दुःख के बादल, सुख की छईंया
चिनगी चिनगी मन की बगिया
प्रियतम तेरे रूप दरश को
कितना आज़ तृषित मन मेरा....

पीली फूलों की क्यारी सा
मेरा मन उमग ही जाता
सांझ दुआरे जब तम लाती
जल जाती तब प्रिय मन बाती
मधुर पीर की रस बूंदों से
कितना आज़ सिंचित मन मेरा....

बीती अनबीती जो मन पर
धूप छांव सी कथा रही वो
मनाकाश पर दुःख की बदली
नैन नीर की व्यथा रही जो
प्रिय तेरे कर नेह किरणों से
कितना आज़ वंचित मन मेरा....

अंतर के महाकाश पर
उर का झिलमिल दूर सितारा
समय गति की निहारिका में
भटक भटक कर यह मन हारा
तृष्णा के अदृश्य रंग में
कितना आज़ रंजित मन मेरा.....