हिंदी है जन-जन की भाषा,हिंदी है भारत की आशा

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बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

मियां सचिन, बबुआ अर्जुन के साथ ओपनिंग करने का इरादा है का .....


मियां सचिन, बबुआ अर्जुन के साथ ओपनिंग करने का इरादा है का .....

मियां सचिन अब बहुत हुआ भईए, अब बहुत हुआ...अब बस भी करो यार । सारा क्रिकेट खुद खा जाओगे या आनेवाली पीढ़ि के लिए भी कुछ छोडोगे । अब अगर बेटे अर्जुन के साथ ओपनिंग करने का इरादा हो तो अलग बोल दो । भई हर चीज़ की एक हद होती है । सारी हदें लाघं जाना ठीक नहीं । सारे रिकार्ड तोडे़ जा रहे हो कांच की बोतल से । बददुआ देंगे बददुआ आने बाले किरकेटिया छोकरे...यही कहेंगें कि सारे रिकार्ड खुद तोड़ गया मास्टरवा और खुद रिकार्डो़ का ऐसे उंचे उंचे खूंटे गाड़ गया आंख दुखने लगे निहारते उन्हें....तोड़ना तो सस्रुरा हमरा बाप भी ना सोच सके । महाराज सचिनचंद जी, अब आप प्रात: स्मरणीय और सांयं बंदनीय हो चुके हो, अब कृपा करो रननिधान, शतकों की खान । सोचो मियां, सुनील, कपिल जैसे महारथी आपके पैर छुने की बात कर रहें..शोभा देता है ऐसे बुजुर्गों से अपने सजदे करवाना । मियां, खुशियां उतनी ही बांटो जितने इस मुल्क के बड़े-बुजुर्गों का दिल संभाल सके । कोई टपक ना जाए किसी अनधिकृत खुशी से भौंचक हो कर ।

हे सचिन महाराज, अब जरा अपने गदा रुपी बल्ले को आराम दो तो दुनिया के गेंदबाजों को कुछ शुकुन नसीब हो । अनवर ने अपनी हेकड़ी ठोकी थी..सचिन चाहे कितने शतक ठोक ले पर मेरे 196 को तोड़ नहीं सकता..। अब जनाब आप कितने के मुंह पर पलस्तर चढाओगे । तुम जम्बुद्वीप रत्न हो, तुम भारत रत्न हो, तुम हिंदुस्तान रत्न हो और तुम्ही इंडिया का कोहेनूर हो...।

शत कोटी भारतियों का सहस्त्र साष्टांग प्रणाम स्वीकार करो ।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

कहीं आपको नेटमानिया तो नहीं...


कहीं आपको नेटमानिया तो नहीं...

भारत जैसे देश में नेट का प्रयोग अभी विकासशील अवस्था में है फिर भी देश में ऐसे लोगों की तादात बढती जा रही है जिन्हें नेट की लत ने एक नशे का आदि सा बना दिया है । चौंकिए मत यह कोई आम बीमारी तो नहीं पर नेट का निरंतर उपयोग करनेवालों में यह बीमारी अब घर करने लगी है । तो आईए जरा खुद को भी इसके लक्षणों की कसौटी पर परख लें ।
निरंतर कंप्युटर से चिपके रहना, घंटो मित्रों की मेल का इंतजार करना और हर मेल को फारवर्ड़ करना, सर्च इंजनों की बिना बज़ह खाक छानना, सोशल साईट्स पर दिन भर चिपके रहना, चैटिं में अपना समय खराब करना और अगर कभी नेट कनेक्शन आदि में कोई दिक्कत आ जाए तो दिन भर डिप्रेशन या गुमसुम सा रहना, यह सब इसके लक्षण हैं । टी.वी के बाद अब कंप्युटर हमारी व्यक्तिगत ज़िंदगी पर हावी होता जा रहा है और इसका अभाव हमें नशे की अनुपलब्धता सी बैचेनी का एहसास कराता है । इस पर विकसित देशों में अनेक शोध हो चुके हैं और उनमें यह तथ्य सामने आया है कि नेट की अतिनिर्भरता भी मनुष्य को शराब या अन्य मादक पदार्थ सा व्यसनी बना सकती है । जिससे अवसाद, निराशा, अतिकाल्पनिकता, जैसे लक्षण उभर कर सामने आते हैं । पिछले दिनों यह भी एक खबर आई थी कि वर्चुअलवर्ल्ड नामक साईट पर एक जनाब ने किसी आभासी प्रेमिका से ऐसा वर्चुअल चक्कर चलाया कि परिणाम में रियल वाईफ से हाथ धोना पड़ा ।

अत: नेट का प्रयोग तो अतिआवश्यक और आधुनिक बनाता है परंतु इसका प्रयोग जरा संभल कर करें । इसे अपने वास्तविक जीवन पर हावी ना होनें दें । सप्ताह में एक-आध दिन नेट से दूर ही रहें । वर्ना नेटीजेन बनने का चक्कर कहीं आपकी खुशहाल जीवन पर ही असर ना डालना शुरु कर दे । हेप्पी ब्राउसिंग....

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

हिंदी, हॉकी और बाघ


हिंदी, हॉकी और बाघ

यह शीर्षक पढ़ कर आपके मन में एक भाषा, खेल और जीव को एक जगह इकट्ठा करने तुक पर सवाल उठेगा ही...!!! जरा गौर करें, इन तीनों के आगे हम बड़े शान से ‘राष्ट्रीय’ का उपसर्ग लगाते हैं और क्रमश राष्ट्र की वाणी, राष्ट्र का खेल परंपरा की विरासत और भारतीय बनों की शान के रूप में पेश कर गौरवान्वित होते रहे हैं । पर आज़ की तारीख में हिंदी पर अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद, हॉकीपर क्रिकेट के एकछत्रवाद और बाघों पर पैसे की रायफल से हर किसी को चुप करा देनेवाले घाघों ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया है । जरा ओर गहराई में जाएं तो पाएंगें कि जब राष्ट्र की अस्मिता से ज़ुड़े होने के बावजूद इनकी हत्या बड़ी खामोशी से राष्ट्र के कर्ता-धर्ताओं के नाक के नीचे की जा रही है । यह हम भारतीयों की पुरानी आदत रही है कि हमारी कुंभकर्णी नींद पानी सर से गुज़रने के बाद खुलती है और वो भी कुछ समय के लिए । उस जागरण में भी कोई सजगता और सार्थक प्रयास कम तथा अफ़रा-तफरी, आरोप-प्रत्यारोप तथा हो-हल्लाहट ज्यादा होता है । हिंदी के भविष्य को लेकर चैन की बंशी बज़ाने वाले भूल रहे हैं कि धीरे धीरे ही सही इस भाषा का क्षरण कर अंग्रेज़ी को स्थापित करने की मुहिम चल रही है । और इसे अंजाम देने बाले ब्रितानी या अमरीकी नहीं हम भारतीय खुद हैं । मीड़िया में हिंदी की स्थिति को देखकर खुश होनेवाले ध्यान दें की आज़ का अधिकत्तर हिंदी मीडिया हिंदी नहीं बल्कि हिंग्लिश मीडिया है । और हिंदी में अंग्रेजी की बेतुकी घालमेल अपनी सभी सीमाएं लांघकर एक ऐसी दोगली भाषा का निर्माण कर रहा है जिसमें ना हिंदी की आत्मा का कोई अंश है और ना हिंदी का कोई संस्कार । आधुनिकता के नाम पर इस भाषा का प्रयोग करनेवाले युवाओं को एक विदेशी भाषा को ठीक से ना समझ पाने और अपनी भाषा की शुद्धता के लिए शर्म महसूस करने की विवशता ने एक वाक्य बोलने में दस बार हकलाने और कंधे उचकाते हुए सड़ज-मुहल्ले में आप देख सकते हैं । यह है भाषा और संस्कारों के पतन और नकलखोरी और आत्महीनता की ग्रंथि से उत्पन्न हकलाट और हिचकिचाहट । कोई भी समाचार, विज्ञापन या फिल्म आप देख लीजिए इसमें आपको अंग्रेज़ी की ताबड़तोड़ घुसपैठ से पैदा हुई बेमेल खिचड़ी ही मिलेगी । फिल्म के नाम देखिए__जब वी मेट, व्हाट इज व्योर राशी.....विज्ञापनों की पंचलाईन देखिए__चार बजे़वाली हंगर का सालिड सोल्युशन...फोन रिसायकल करो बनो प्लेनेट के रखवाले...और भी ना जाने क्या क्या..!! आज़ हमे यह सब अटपटा इसलिए नहीं लगता क्योंकि एक प्रक्रिया के तहत आहिस्ता आहिस्ता यह दोगली भाषाई कचरा हमारे मनोमस्तिष्क में उतारा जा रहा है । एक दिन था जब माधुरी के गाने चोली के पीछे क्या है पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी पर धीरे धीरे हमारे मस्तिष्क ने यह सब पचाना शुरु कर दिया और अब हम विपाशा और हासमी की लगभग ब्लू फिल्म भी सपरिवार पचा रहे हैं । सरकार मीड़िया पर अनियंत्रण की पंगु नीति बना मुहं सीले बैठी है । इससे हमारी आनेवाली पीढि किस प्रकार सांस्कृतिक रूप से दिवालिया और दिग्भ्रमित पैदा होगी इसकी किसे फिक्र है । नियो जैसे क्रिकेट चैनल भी पूरी तरह अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत परोसने की नीति बनाकर चल रहें हैं । जब 90% लोग अंग्रेज़ी समझ नहीं पाते तो यह स्पोर्टस चैनल क्यों भारतीय जनमानस में अंग्रेज़ी उंडेलना चाहते हैं, यह समझ से परे है । सराकार हिंदी और अन्य स्थानीय भाषाओं के प्रति सदा से उदासीन रही है ।

एक लोकप्रिय खेल के रूप में क्रिकेट अपनी जगह ठीक था पर इसकी लोकप्रियता पर जब कार्पोरेट की नज़र पड़ी तो यह एक व्यापार, एक धंधा बन गया है । आई.पी.एल. आदि ने खिलाडियों को हाट में बिकनेवाली भेड़-बकरी बना दिया । इस खेल के सितारे तो करोड़ो से खेलते हैं पर हॉकी के खिलाड़ी अपनी मैचफीस तक के लिए तरसते हैं । क्रिकेट का संभ्रांती मठ बना बीसीसीआई जिसके पास आज़ अरबों रुपये हैं क्यों हॉकीऔर अन्य भारतीय खेलो के उत्थान के लिए आगे नहीं आती । हॉकी जीये या मरे इनसे इन्हें क्या लेना-देना, इनका बटुआ गर्म होता रहे, बस यही काफी है । सरकारी निक्कमापन और बाज़ारबाद ने हॉकी का भयंकर पतन कर दिया है । हर जगह विदेशी के अनन्य मोह ने खेलों को भी नहीं वक्शा और प्राचीन भारतीय खेल इतिहास की गर्त में समा गए ।

बाघों के लिए विलुप्ति शब्द लगा कर अपनी भारी भूल और लापरवाही को छिपाना निर्लज्जता के सिवा ओर क्या है । विलुप्त तो वे होते हैं जो अपने परिवेश से अनुकुलित ना होकर मिट जाते हैं । यहां तो पूरी बाघ प्रजाती की हत्या कर दी गई और सरकार विकलांग बन कर देखती रही । पहले राजा-महाराजाओं नें अपने ओछे मनोरंजन के लिए इन्हें मारा फिर अंग्रेज़ों ने इन्हें अपनी हिंसक वृत्ति का शिकार बनाया और अब देश के अंदर देश के ही हत्यारों ने अपनी दौलत की बेचेन भूख को मिटाने के लिए इनका सफाया करने में कोई कोर-कसर ना छोड़ी । चीन और अन्य देशों में बाघ की चमड़ी,हड्डी और अन्य अंगों की सोने सी मांग ने बाघों को दिन-व-दिन कुत्ते की मौत मरने को मजबूर कर दिया । कान्हा आदि अभयारण्यों में हमनें चोरी-छिपे चलने वाला यह कत्लेआम कुछ समय पहले छोटे परदे पर देखा । बाघों के बाद अब मोर, हाथी,चीता भी एक एक कर विलुप्त हो जाएंगे और हमारी सरकार ९% की विकासदर को चूमती चाटती रह जाएगी । जंगल ज़मीन और जनता जिये या मरे, इनका वज़ूद रहे या खत्म हो इसकी किसे फिक्र है ।

जो घट रहा वो इतना बुरा नहीं बल्कि बुरा तो यह है हमारा और आपका घातक चुप्पी साधकर तमाशाबीन बन जाना । आईए हम भी इस नकारातंत्र का हिस्सा ना बने, अपने बच्चों को चोतरफा हो रहे सांस्कृतिक हमले से बचाएं, उन्हें अपनी भाषा और संस्कृति और अपनी विरासत से रु-ब-रू करवाएं । आईए, हिंदी को बचाएं, आईए हॉकी को बचाएं, आईए अपने राष्ट्रीय पशु को मानवीय पशुता से बचाएं ।
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बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

पेतेन


पेतेन

आठ दस घरों वाले गांव में वारिश में और झंझड में अधढहा मकान जिसकी एक भीत पर बुढ़िया के हाथ से बने गेरू के चित्र अभी भी साफ़ है । तेरह साल पहले बुढ़िया के बड़े बेटे की इसी घर के पास के पीपल के नीचे बिज़ली गिरने से मौत हो गई । रो दहाड़ की चुप्पी के बाद इस परिवार ने यह मकान छोड़ दिया और गांव के उस सिरे पर बांस के झुटपुटे के पार पुआल की झोपड़ी बना ली थी । दो साल पहले बेटी के गौने के बाद बुढे ने ऐसी खाट पकड़ी कि फिर मौत ने ही आकर आराम दिया । एक छोटा बेटा चारु था जो भूख-गरीबी के इस नरक में सड़ना नहीं चाहता था सो वह भट्टे में ईंट सेंक कर जठर की आग बुझाने दक्षिण चला गया । परिवार के नाम पर अब अकेली बुढ़िया बची है गांव में । टुकड़े भर जमीन पर शाक-भाज़ी बोकर बुढ़िया अपने बचे दिन काट रही है । बुढ़िया के दिनों-दिन बुढ़ाते-झुर्राते चेहरे और अक्सर झोपड़ी में पड़े रहने की आदत कारण गांववाले भी उसे पेतेन (डायन) समझ कतराते हैं । पोस्टमास्टर कहता है, बुढिया चारू के लौटने के अब लक्षण नहीं, सुना है उधर जोरू कर ली है । गौने से पहले बेटी बुढ़िया से बड़ी हिली थी पर अब उसकी गिरस्ती दूसरी हो गई, फिर भला इस नरक में आकर कौन सड़े ।

भादो की झड़ी लगी है और चार दिन की लगातार वारिश से बुढ़िया की झोपड़ी तीन-चौथाई टपकने लगी है । बदली के अंधेरे में सांझ कब ढली पता नहीं चला । झोपड़ी के एक कोने में देढ़ हाथ की सूखी जमीन पर बुढ़िया ऊकड़ू होकर बैठी है और दूसरे किनारे पर तालपत्री की आड़ में ढिबरी जल रही है धूंए का काज़ल झोपड़ी के पुआल पर जम रहा है । बूढ़ी हड्डियों में इतनी ताकत नहीं कि इस मौसम में इंधन और खाने का कुछ जुगाड़ कर सके । माटी की हांडी में तीन दिन से पड़ा बासी पखाल (पानी में डाला गया भात) भी गंधाने लगा है । नरक में कौन रहता है,

पेतेन के सिवा !!

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

ओ गौरेया.....


ओ गौरेया.....

ओ गौरेया.....
नहीं सुनी चहचहाहट तुम्हारी
इक अरसे से
ताक रहे ये नैन झरोखे
कुछ सूने और कुछ तरसे से


फुदक फुदक के तुम्हारा
होले से खिड़की पर आना
जीवन का स्वर हर क्षण में
घोल निड़र नभ में उड़ जाना’


धागे तिनके और फुनगियां
सपनों सी चुन चुन कर लाती
उछलकुद कर इस धरती पर
अपना भी थी हक जतलाती


सिमट गई चिर्र-मिर्र तुम्हारी
मोबाइल के रिंग-टोन पर
हंसता है अस्तित्व तुम्हारा
सभ्यता के निर्जीव मौन पर

मोर-गिलहरी जो आंगन को
हरषाते थे सांझ-सकारे
कंक्रीट के जंगल में हो गए
विलिन सभी अवषेश तुम्हांरे

तुलसी के चौरे से आंगन
हरा-भरा जो रहता था
कुदरत के आंचल में मानव
हंसता भी था और रोता था ।

भूल गये हम इस घरती पर
औरों का भी हक था बनता
मानव बन पशु निर्दयी
मूक जीवों को क्यों हनता ।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

आज़ विरह की रात..


आज़ विरह की रात..

आज़ विरह की रात
मिलन की बात ना करना
आज़ विरह की रात.....

पी मधुर गरल की प्याली
जी भर रोई मतवाली
ले सुबह उषा की लाली
नयन, पलक के साथ
शयन की बात ना करना
आज़ विरह की रात....

तरस तरस सब बुझ गईं प्यासें
बरस गईं नज़रों की आसें
नीरस मन की आह उसासें
जीवन की सौगात
थकन की बात ना करना
आज़ विरह की रात....

उर-पीड़ा का बोझ संभाले
ये शोणित के गीत निराले
बड़े नेह से अंतर पाले
ज्यों नीर-नैन का साथ
चुभन की बात ना करना
आज़ विरह की रात.....

यही कथा है यही कहानी
ये मन उन्मन की मनमानी
पीर पराई, व्यथा विरानी
कोई बांचे किसके साथ
सहन की बात ना करना
आज़ विरह की रात....

आंसू का लहराता सागर
भरा भरा ये मन का गागर
सब खोया यूं किसको पाकर
रे पथिक परिजात
जलन की बात ना करना
आज़ विरह की रात
मिलन की बात ना करना
आज़ विरह की रात.....

अमा निशा सम तम मन में
आशा का तुम दीप ना धरना
बुझे-बुझे नीरस प्राणों में
जीवन रस संचार ना करना
आज़ विरह की चिर-बेला में
पुन:मिलन के गीत ना रचना ।

जीवन


जीवन

सुख एक सुनहला पंछी
ख्वाव उनींदी आंखों का
तृष्णा अतृप्त कंठों की......

कंटकित राह, अथाह चाह,
उस समग्र की
बूंद भर प्यास
क्षण भर आस

भर लेने को अथाह
सागर की वासना
लहूसिक्त चेहेरों पर ढांकें मुखोटे
छुपाये गरल
अदृश्य रगों में......।
माटी

सुनहली धूप
दरख्तों के साये से
ओंस की बूंदों से
कांटों के झुरमुट से
सागर के उन्मन से
देती है छुअन
माटी को.....
जीवन में स्वप्न का
सपने में जीवन का
अस्तित्व बचाने को ।

प्रायश्चित

एक जुड़वां कन्या भ्रुण गर्भ में मार दी गई । दोनों की रुहें नर्क में पहुंची तो दोनों एक दूसरे को डबकोहीं आंखों से ताकने लगीं । पहली रुह बोली_ जनम लेकर वहां भी नरक देखना था शायद सो यहां ये नरक भोगने भेज दिया गया । दूसरी बोली पिछले जनम के सारे हिसाब-किताब चुकता कर ही मानुष जनम नसीब हुआ था और वहां भी जनम लेने से पहले ही हमारी औरत बिरादरी की पुत्र-लालसा के चलते हमारी जनम-नाल कटने से पहले हमें काट कर नालियों में बहा दिया गया । वो देख हमारी देह जो जोबन में किसी के सुख का माध्यम बनने के लिए गदराती आज उसके लोथडे़ आवार कुत्तों की भूख मिटा रहे हैं । पहली --- फरक क्या है, भूख ही तो मिटा रहे हैं, चाहे ऐसे चाहे वैसे । पहली- वो तो ठीक है पर पर एक बात तो समझ ना आई कि बिन जनम लिए बिन करम किए ये नरक किस पाप का दंड में भोगने भेज दिया घरमराज ने ! दूसरी- किसी के मां के गरभ में औरतजात के रूप में चार महीने काट लिए, किसी मां-बाप के बुढ़ापे के सहारे के अरमानों पर पानी फेर दिया, कितनी ही आंखों से पुत्र-पौत्र के सपने को आंसूओं से धो दिया, ये तो ऐसे पाप हैं कि हम सात नरक भोग लें तो भी प्रायश्चित ना हो...

दूसरी की आंखों की कुटिल मुस्कान अंतर की गहरी पीर की चुभती अभिव्यक्ति दे रही थी ।

अनबीता अतीत


अनबीता अतीत

अर्से बाद तुम्हारा
भोर के ख्वाव में आना
बदली भरी सुबह को
गुमसुम कर देता है

जानी-पहचानी वही तुम्हारी मुस्कान
अनमनी सी आंखों से
तिरछी तिरछी हंसी तुम्हारी
जो समेटी थी कोई अनकही पीर

वर्षों से रूखी बंजर जमीं पर
हल्की बरसात के बाद की उमस
उनींदी उनींदी सी शाम,
स्मृति मात्र नहीं
बीते-अनबीते अतीत का एहसास
समय की विलुप्त पगडंडी पर....
जैसे जंगली फूलों की गंधवाली हवा
जैसे भरी दोपहरी सुनसान रास्ते में किसी चिड़िया की बोल
किसी निशब्द ठिठके क्षण में
जब समय भी ठहरा हुआ सा लगता है
मन के मुहाने पर
स्मृति के बीहड़-बीराने में
किसी अंधे दुभाषिए की तरह
जीवन के संत्रास की मूकभाषा को
भ्रम के झाड़-झंकड़ में दबे-छिपे
मील के पत्थरों में
अज्ञात लिपिचिह्नों में
लिप्यांतरित करता चलता हूं......

अनुभूति के स्वर और
अवसाद की मीलों मोटी
बर्फ की तह के नीचे
किसी अदृश्य सूक्ष्मजीवी सा संज्ञाहीन मन
अनंत कल्पों से किसी उष्म रश्मि
की चिर प्रतीक्षा में......

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

कोई जूते से ना मारे मेरे दिवाने को

कोई जूते से ना मारे मेरे दिवाने को

जूते का मानव सभ्यता से बड़ा गहरा संबंध रहा है । कहते हैं कि किसी जमाने में किसी नाजुक बदन और तुनक मिजाज़ राजा को बागिचे में टहलते हुए कांटा चुभ गया । फिर क्या था उसने सारी पृथ्वी को चमड़े से मढ़ देने का आदेश दिया । अब इतना चमड़ा आखिर पैदा कैसे हो, तो किसी बीरबल टाइप दरबारी ने एक छोटे से चमडे़ के टुकड़े को काट कर राजा के पांव में पहना दिया और तब से धरती पर जूते का चलन चल पड़ा । अब आदमजात की यह बड़ी अजीब आदत रही है कि वो हर उपयोगी वस्तु का बहुमुखी उपयोग कर लेना चाह्ता है । अब यही उसने जूतों के साथ भी किया । सदा पैर में पड़े जूतों का सम्माननीय उपयोग करते हुए किसी ने शादी-ब्याह में इसे पैसे ऐंठने का माध्यम बनाया तो किसी ने इसकी माला बना स्वागत-सत्कार की पारंपरिक पद्धति को मौलिक आयाम प्रदान किया, तो किसी हत्थकटे ठाकुर ने अपने जूते में कील छिपाकर एक नवीन हथियार का विकास कर अपने दिल के `शोलों’ को शांत किया । परंतु जूते से खोपड़ी तोड़ने के तरीके के ईजाद ने जूते के इतिहास को सदा के लिए बदलकर उसकी गरिमा को एक नई उंचाईं प्रदान की । हिंदुस्तान में तो जूतियाने को सदा से ही एक विशिष्ट ‘हूनर’ का दर्जा दिया गया है । इसकी अपनी तकनीक है । कहनेवाले कहते हैं कि जूतियाने से पहले अगर जूते को रात भर पानी में भिगो दिया जाए तो सुबह जूतियाने बखत आबाज़ अच्छी आती है । यह भी कहा गया है कि जूतियाने का सही तरीका यह है कि गिनती के साथ जूते बरसाना शुरु करो और 30-40 तक पहुंचते पहुंचते गिनती भूल जाओ और फिर नए सिरे से शुरु करो । जूते के साथ भारतीय पौराणिक साहित्य में भी एक कथा आती है कि रघुकूल के लघुपूत भरत ने कूटनीतिक चालाकी से राम की पादुका को सिंहासन पर रख दिया और राम को नंगे पांव ही गहन वन में भेज दिया ताकि चौदह बरस तक कांटे-कंकड़ खाते हुए राम वन में ही सेप्टिक-गैंग्रिन से मर खप जाएं और चौदह बर्ष बाद सत्ता हस्तातंरण का लफ़ड़ा ही खत्म हो ।

अब यह तो हो गई परंपरा और पुराण की बात परंतु लगभग बरस भर पहले प्रात: स्मरणीय मान्यवर मुंतजर अल जैदी के एक जूते के प्रक्षेपण ने जूते से जुड़ी समस्त धारणाओं-मिथकों को बदल कर रख दिया । बेचारा जूता जो लाचार जबान लड़की के बाप के पैरों में पड़ा घिसता था वही अचानक बुश जैसे महापुरुष के मस्तक पर सवार हो सारी दूनिया में अपनी प्रतिभा का जूता मनवाने लगा । यह वही जूता है जो जैदी के हाथ से प्रक्षेपित होकर, आदम के पैर से निकल कर दिमाग की मरम्मत करने का अनन्य प्रतीक बन गया । यह वही जूता है जो अपना नंबर बुश की मुंदी मुंदी सी आंखों को पढ़वाकर भारत सहित सारे विश्व में जूता क्रांति उपस्थित कर दी । इस पादुका प्रक्षेपण के बाद तो जो जूताफेंक होड़ चालू हुई उसने क्या हिंदुस्तान, क्या चीन सभी मुल्कों को अपनी जद में ले लिया । जहां देखो वहां जूते ऐसे बरसने लगे मानों किसी परम कृपालु देवता की आशीष बरस रही हो । जो जूता जैदी के करकमलों से निकल कर बुश का मुखचुंबन करने निकला था उसका निर्माण करनेवाली कंपनी के लिए मानो छींका ही टूट गया । पांचो ऊंगलियां जूते में डालकर उसने जूतों से कमाई की जो फसल काटी है उसकी मिसाल कोई ओर नहीं । खैरियत यह रही कि इन कंपनियों का की कोई ‘जैदी’ ब्रांड का जूता ही ना निकाल दिया । मार्केट में बाटा, एक्शन, रीबाक आदि पांव जमाई कंपनियों के शेयर रातोंरात सातवें आसमान पर पहुंच गये । नेता और मंत्रियों के खेमे में हडकंप मच गया । अब ये सारे बदनाम प्राणी बुलेटप्रुफ़ को छोड़ कर जूताप्रुफ़ प्रोटेक्शन की खोज़ में एडियां रगड़ने लगे । कई कंपनियों ने तो एक जोड़ी जूते के साथ एक अतिरिक्त एयरोडायनमिक्स जूता फ्री देने की भी योजना बना ली । एक जोड़ी जूता पांव में डालिए और अतिरिक्त एयरोडायनमिक्स जूते को फोल्ड़ करके सदैव अपने साथ रखिए । क्या पता कब, किसे, कहां जूतियाने के मौका हाथ आ जाए । जो भी जिससे महीनों-सालों से खार खाए बैठा था उसे अपनी भंडास निकालने का यह सुनहरा अवसर हाथ लग गया । सड़े अंडे, टमाटर फेंककर और काली रिबन पहन कर विरोध जताने का फंडा वैसे भी काफी पुराना हो गया था । ऐसे में मान्यवर जैदी जी ने विरोध की जो नई तकनीक ईजाद की वह मानो विरोध के उबाऊ माहोल में ताजी हवा का झोंका था । मेरी मानें तो शांतिपूर्ण विरोध की इस अनुपम तकनीक के ईजाद के लिए शांति का अगला नोबल इन्हें ही मिलना चाहिए । दूसरी ओर सस्ती या कहे कौड़ी के भाव की लोकप्रियता हासिल करने का भी इससे क्रांतिकारी तरीका कोई हो ही नहीं सकता था । बस मौका देख कर किसी नामी-गिरामी हस्ती को जूतिया दो और आपकी लोकप्रियता की टी.आर.पी. कुंलाचें भरती नजर आयेगी । अजी, फिर जाए तो नौकरी जाए और हो जाए गिरफ्तार कुछ हफ्तों के लिए तो हो जाएं । चंद दिनों में आप रिहा होकर शान से निकलेंगें और जिसे जूता पड़ा होगा उसके विरोधी पक्ष आपको सर आंखों पर बिठाने के लिए दौड़ा चला आएगा । इनामों की बरसात हो जाएगी और टी.वी. चैनल वाले अपनी टी.आर.पी. के चक्कर में आपको मशहूर करा देंगें सो अलग । जैदी का जूताकांड इतना हिट हुआ कि बगदाद में उनके नाम पर एक जूता स्मारक ही बना दिया गया । गाहेवगाहे यदि आपका जूता भी निशाने पर लग गया तो आप भी चाहें तो अपनी जूतानुमा समाधी बना कर इस मृत्युलोक में सदा के लिए अमर हो सकते हैं । हिंदी के महान क्रांतिकारी कवि स्वर्गीय सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने दमित, दलित और शोषित जनता के लिए प्रतीक चुना था_ कुकुरमुत्ता । परंतु दमित शोषित जन के विरोध का प्रतीक क्या हो इस पर शायद उन्होंने सोचा नहीं । इसके लिए ऐसे क्रांतिकारी प्रतीक चुनने का समग्र श्रेय जाता है महान जूतामार क्रांतिकारी मुंतजर अल जैदी को ।



ये तो हुई साल भर पहले विश्व के राजनीतिक पटल पर जूते से मची हलचल की खबर । अब इस जूते फिर से कौन सा नया गुल खिलाय है वो भी सुन लीज़िए । अपने बुश साहब जो अपनी नाक पर मक्खी तक बैठने नहीं देते थे, जूते की मार से तिलमिलाए जरूर पर अपनी खीज को कूटनीतिक चालाकी से छिपा गए थे । अब जूता चलाना कोई ड्रोन चलाना थोड़े ही है कि आसमान से चोरी-छिपे हमला कर दिया । इसका प्रक्षेपण तो जनाब एक विशिष्ट कला है जो चलाते चलाते ही आती है । अब बुश साहब को यह तो पता था कि ईंट का जवाब पत्थर से देने की पुनीत परंपरा रही है पर अब कोई भरी महफिल में जूता दे मारे तो उसका जबाव आखिर किस चीज़ से दिया जाए इस बारे में अमरीका के घाघ कूटनीतिज्ञ भी एक-दूसरे की ओर ताक कर मौन रह गए । पर अब आखिर एक साल के गहन अनुसंधान के बाद इसका जबाव पैरिस में खोज़ लिया गया है । जूते का जबाव जूते से इसका उत्तर तो सरल है पर इसके पीछे बडा़ गहरा दर्शन छिपा हुआ है । जो पत्रकार महोदय एक वर्ष पूर्व बुश साहब से सवालों की बोछार करते करते अपना जूता ही जोर्ज साब की ओर उछाल बैठे आज वही जैदी साहब जब संवाददाता सम्मेलन में प्रश्नकर्ता की भूमिका को त्याग कर उत्तरदाता के रूप में शान से डेस्क पर विराजमान थे तो अचानक ही एक जूता उनकी ओर उछला और मान्यवर जैदी जी की खोपड़ी चाक होते होते बाल-बाल बची । यह तो वही बात हो गई कि कोई बंदूक के आविष्कर्ता की खोपड़ी में ही उसी के द्वारा आविष्कृत बंदूक की पहली गोली उतार दे । शायद ज़ैदी साहब की यह गलती हो गई कि इस आविष्कारी जूतामार फार्मुले को पेटेंट करवाने से वो चूक गए । अरे भाई, किसी अमरीकी संस्था को कुछ दे-दिवा कर किसी प्रकार पेटेंट-शेटेंट करा लेते तो आज हर चलने वाले जूते पर कुछ रायल्टी बन जाती या नहीं, अब चाहे वो जूता खुद पर पड़े या किसी ओर पर । खैर, आज रिटायर्ड़ बुश महोदय की जूते से छलनी आत्मा को ठंडक मिल गई होगी । डूबते व्यक्ति से भी प्रतिक्रिया लेने में माहिर हिंदुस्तानी मीड़िया जैदी पर पड़े जूते पर बुश साहब की प्रतिक्रिया लेने में कैसे चूक गया यह शोध का विषय है । जो जूता लगभग साल भर पहले उनकी पूजा करने के लिए ब्रह्मास्त्र सा उनकी और बढ़ा था आज़ समय ने उसकी गति बूमेरां सी निक्षेपकर्ता की ओर ही मोड़ दी । एक जूतेमार के ऊपर ही जूते से प्रतिआक्रमण ने से हिंदी के कई मुहाबरों को चरितार्थ कर धन्य कर दिया । जैसी करनी वैसी भरनी, जैसा बोओगे वैसा काटोगे, ईश्वर के घर देर है अंधेर नहीं, जिसकी जूती उसीका सर आदि आदि । जिस जैदी ने शेर बनकर दुनिया के शंहशाह राष्ट्र के महामहिम की महिमा को नष्ट-भ्रष्ट करने की जो गुस्ताखी की थी आखिर उस शेर को आज एक सवा शेर मिल ही गया । स्थान बदल गया, लोग बदल गए पर इतिहास ने खुद को दोहराने की प्रक्रिया में जिसे नहीं बदला वो था अमोघ अस्त्र जूता ।

जरनैल जी सावधान, अगला जूता.........।