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मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

कहाँ स्लमडॉग हिंदी और कहाँ मिलियनारी अंग्रेजी

कहाँ स्लमडॉग हिंदी और कहाँ मिलियनारी अंग्रेजी

हिंदी की हाय हाय बहुत हो गई. हिंदी के टुच्चे यूँ ही हिंदी का हाहाकार मचाते रहेंगे. हिंदी को जहाँ पड़े रहना है उसे वहीँ पड़े रहने दो. 60 साल से वहीँ पड़ी है तो क्या भेंगज हो गया. कुछ साल और पड़ी रहेगी और फिर एक ना एक दिन पड़े पड़े सड़ जाएगी. हमारे शुभ्रबर्णी भूतपूर्व शासक अंग्रेजों ने कितने कष्ट उठा कर सांस्कृतिक क्रॉस ब्रीडिंग से जो हमारी दोगली खच्चर बाबु नस्ल बनाई उसी की सुधारना और एक तरफ विश्वगुरु का ढोल पीटते हुए दूसरी और गोरी संस्कृति के आगे दुम हिलाते रहना यही हमारा परम कर्तव्य है. अब कोई ये बताये कि इस निगोड़ी हिंदी के लिए कितने नियम बने, अधिनियम बने, संकल्प रूपी बैशाखियाँ लगा दी गयी पर ये रही वही थी थर्ड ग्रेड की झोपड़पट्टी भाषा. बीमारू राज्यों की यह लपड़झग्गु गबांरू भाषा इंडिया जेसे माडर्न कल्चर्ड प्रोग्रेसिव नेशन की आफिशिअल लैंग्वेज हो यह अपने आपमें ही डूब मरने की बात है. ये हिंदी की बात करने वाले जटा-केशधारी खद्‍दर लिपटे देहाती से गंधाते हैं और कंठलंगोटधारी यु.एस रिटर्न महानुभाव मैकोले की सांवले उत्तराधिकारियों के आगे इनकी हिंदी टायं टायं फिस हो जाती है. राजनेताओं के मुख पर अंग्रेजी, अभिनेताओं के श्रीमुख पर अंग्रेजी, क्रिकेट के तारों के सुमुख पर अंग्रेजी....अफसर की अंग्रेजी, दफ्तर की अंग्रेजी, शिक्षा में अंग्रेजी, दीक्षा में अंग्रेजी, धौंस में अंग्रेजी, रोष में अंग्रेजी, खाओ अंग्रेजी, पियो अंग्रेजी, सोओ अंग्रेजी, रोओ अंग्रेजी....दशों दिशाओं में अंग्रेजी, सारी फिजाओं में अंग्रेजी. इंग्लिश के इस अथाह सागर में हिचकोले खाती हिंदी को मुहं छिपाने की जगह तक नसीब नहीं. यह अभागन केंद्र सरकार के दफ्तरों के हिंदी विभाग, अनुभाग में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में अहल्या सी आधी सदी से पड़ी किसी मर्यादा पुरुषोत्तम के स्पर्श से उद्धार की अपेक्षा में है. सेमिनार, वर्कशॉप, कांफ्रेंस, ट्रेनिंग के कितने हैवी डोज दिए जा रहे हैं पर नतीजा वही सिफर का सिफर. अरे, बोलते रहें कितने ही करोड़ लोग यह भाषा इससे क्या फर्क पड़ता है. इन लोगों का सोशल, फायनान्शियल स्टेटस है ही क्या ! जितने पैसों में इन लोगों की गृहस्थी चलती है उतने का तो इंग्लिश वाले एक दिन में टायलेट पेपर खपा जाते हैं. फिर क्या मजाल है इन फटेहाल हिंदी वालों की कि ये सीधे अंग्रेजी के मुहं लगने चलें हैं. कौरी उम्मीदी की हद तो यह है कि अब ये ऐसी गरीब जुबान को यु.एन.ओ. की अफिशिअल लैंग्वेज बनाने का खयाली पुलाब भी पकाने लगें हैं ! अब इन नादानों को कौन समझाए कि इस देश की रग रग में अंग्रेजी बसी है. यहाँ के देशी कुत्ते भी कमांड सिर्फ अंग्रेजी में समझते हैं. हिंदी और अंग्रेजी यहाँ दो भाषाओँ का नाम नहीं बल्कि एक काली चमड़ी और पिछडे होने की हीन ग्रंथि से उपजी सांस्कृतिक शर्म है तो दूसरी माडर्न, प्रोग्रेसिव, लिबरल और कल्चर्ड होने का अनन्य प्रतीक.

इस देश में इंडीपेंडेंट डे, टीचर डे, जैसे कई ‘डेयों’ की तरह एक ‘हिंदी डे’ नामक पुनीत पावन डे भी आता है. इस दिन इसी तथाकथित आफिशियल लेंग्वेज के तथाकथित प्रचार-प्रसार के लिए तथाकथित हिंदीसेवियों के द्वारा ‘हिंदी हिंदी’ नामक एक ड्रामा खेला जाता है. चूंकि हर केंद्रीय सरकारी संस्थान में हिंदी अधिकारी नामक एक सहज सुलभ प्राणी उपलब्ध रह्ता है अत: इस ड्रामे का निर्देशक उसे ही बना दिया जाता है और भाषा की बेलगाडी को अकेलेदम खींचनें की आत्ममुग्धता से उत्पन्न उत्तेजना में वह फिरकी की तरह नाचते हुए इस पखवाड़े का अखाड़ा सजाता है. हिंदी का यह मौसमी बुखार कई जगह एक दिन का तो कई जगह हफ्ते, पखवाडे, महीने तक खींच जाता है. आजकल हिंदी का यही मौसमी बुखार अपने पूरे शबाब पर है. सारा सरकारी तंत्र दिखाने वाले अपने भाषाई दांत घीस पोंछ कर चमकाने में व्यस्त है. हिंदी दिवस समारोह के पिछले साल के बेनरों पर चालू वर्ष की पट्टी लगा टांग दिया गया है. हिंदी की धुनी रम गई है. हिंदी का बाना ऐसे फहराने लगा है मानो जो थी वो हिंदी थी, जो है वो हिंदी है और जो होगी वो भी सिर्फ हिंदी ही होगी. हिंदी के महानुभव प्रोफेसरों की मांग पितृपक्ष के विप्रजनों सी बढ़ गई है. व्याख्यानों, घोषणाओं और संकल्पों का दौर चालू हो गया है. हिंदी बढ़ रही है...हिंदी जोड़ती है...हिंदी सांस्कृतिक एकता की पहचान है.....आदि, इत्यादि, अनादि. जैसे सुभाषितों से वातावरण गूंजने लगता है. विभिन्न संस्थाओं के निदेशक, महानिदेशक महोदय जो पूरे वर्ष एक भी शब्द हिंदी में उच्चारित ना करने की भीष्म प्रतिज्ञा लिए रहते हैं इस पाक मौके पर अपनी प्रतिज्ञा तोड़ते हैं और लडखडाते, संभलते बोल ही देते हैं __ 'हिंडी हमार्री रास्ट्रभाषा हे'. दरअसल फ्लुएंट इंग्लिश झाड़ पाना जितनी बडी योग्यता है, उससे भी बड़ी अयोग्यता है मुख से हिंदी निकल जाना जिसे इस मुश्किल अवसर पर बड़ी कुटनीतिक चालाकी के साथ छिपाना पड़ता है.

चूंकि हर समारोह में मुख्य अतिथि का रहना परमावश्यक रहता है अत: इस समारोह में भी कोई ना कोई सामाजिक को यह सोभाग्य नसीब होता है. मुख्य अतिथि नामक हिंदीजीवी को दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित किया जाता है. हालांकि इन दो शब्दों में उनकी सालभर से बजबजाती कहास, भडास, लिखास, छ्पास; काव्यात्मक, लयात्मक और भ्रमात्मक ढंग से उबल पडती है. मैं तो कहता हूं.....मैं बार बार कहता हूं......मैं तो फिर कहता हूं........मैं तो यह भी कहता हूं.........शब्द, सुक्तियां, मुहावरे, सुभाषित, उद्धरण, गजल, शेर, सारे एक दूसरे पर गिरते पडते माईक पर ढेर हो जाते हैं. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ ही माननीय अतिथि महोदय के मुखमंडल पर वो मुस्कान तैर जाती है जो अक्सर बोलनेवाले की बुद्धिमत्ता और सुननेवाले की गूढ़ बात ना समझ पाने की नादानी को जताने और छिपाने दोनों के लिये अश्लीलतापूर्ण मासूमियत के साथ प्रयुक्त की जाती है. पूरे अभिभाषण की आलंकारिकता को अगर छोड दिया जाए तो उसमें से जो अर्क निकल कर सामने आता है वो यह है कि कमाल पाशा एक व्यावहारिक व्यक्ति थे. चीन, कोरिया, जापान और फ्रांस अपनी स्वराष्ट्र और स्वभाषा से जितना प्रेम कर पायें हैं उतना यहां हीर भी रांझा को नहीं कर पाया तथा हमारे देश के राजनीतिक अभयारण्यों में पाया जानेवाला नेता नामक प्राणी जन्मजात अदूरदर्शी होता है और उसकी अदूरदर्शिता को पकड लेने की महाचालाक सूक्ष्मदर्शी प्रतिभा ईश्वर ने केवल उन्हें ही वख्शी है.

इसके बाद शुरू होता है उद्धृत करने का सिलसिला. इतिहास की कब्रगाह से हर उस हस्ती को घसीट लिया जाता जिसने अपने जीवनकाल में गाहे वगाहे हिंदी का नाम लिया हो. गाँधीजी ने कहा था......... चाचा नेहेरू ने कठोर शब्दों में कहा था......., नेताजी सुभाष ने जोर देकर कहा था.......लोकमान्य तिलक ने चीख चीख कर कहा था........हर शब्द AK47 की गोलियों से तडतडाते हुए निकलते हैं और हर शब्द को बलाघात और अनुतान की ऐसी लहरों के साथ उछाला जाता है मानो हिंदी के रहनुमा ताल ठोंक रहें हों कि__ है कोई माई का लाल जो हिंदी कि और नज़र उठाये ! फिर आता है विश्व में हिंदी की स्थिति को दर्शाने का क्रम. कम जोशीले हिंदी को विश्व की तीसरी या चोथे नंबर की भाषा बताते हैं, मध्यम जोशीले विश्व में इसकी स्थिति मंदारिन के बाद दूसरी बताते हैं परन्तु जिनका जोश मानक अमानक सभी स्तरों को लाँघ चुका है वे सीधे इस भाषा को विश्व की नंबर एक भाषा स्थापित कर देते हैं और साथ में यह पुच्छला भी जोड़ देते हैं कि भाषा की विश्वव्यापी दौड़ समाप्त हो चुकी है इसलिए हिंदी के लिए दुबले होने की जरुरत नहीं है और चूँकि समस्या भाषा की नहीं बल्कि भाषियों की संख्या की है तो अगर कभी भविष्य में जरुरत पड़ी तो केवल हिंदीभाषियों को अपनी जन्मदर बढानी होगी. तालियों की गडगडाहट, कैमरों की चटाचट और ऐसे ओजपूर्ण समारोह के क्षण-प्रतिक्षण की विडियो शूटिंग. अब भला किस अंग्रेजी के लाल में ऐसी हिम्मत है कि इस महातामझाम वाले अखाडे को देख कर भी हिंदी के भविष्य के बारे कोई टिप्पणी कर दे !

राजरानी की चमड़ी कितनी भी गोरी हो और नौकरानी कितनी ही सांवली क्यों ना हो साल में एक-आध दिन तो किसी भी शोहर का दिल ‘टेस्ट चैंज’ के लिए मचल ही जाता है.

शुक्रवार, 19 जून 2009

गंगाधर मेहेर की दो कविताएँ

गंगाधर मेहेर की दो कविताएँ

(स्वभावकवि गंगाधर मेहेर - १८६२ - १९२४)

मूल उड़िया से हिन्दी अनुवाद : डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

अमृतमय

मैं तो बिन्दु हूँ

अमृत-समुन्दर का,

छोड़ समुन्दर अम्बर में

ऊपर चला गया था

अब नीचे उतर

मिला हूँ अमृत-धारा से ;

चल रहा हूँ आगे

समुन्दर की ओर

पाप-ताप से राह में

सूख जाऊँगा अगर,

तब झरूँगा मैं ओस बनकर

अमृतमय अमृत-धारा के संग

समा जाऊँगा समुन्दर में

( 'अर्घ्यथाली' कविता-संकलन से )

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सीता-राम का दाम्पत्य प्रेम

सागर के प्रति
सरिता की गति
रहती स्वभाव से
जब शिला-गिरिसंकट
सामने विघ्न-रूप हो जाते प्रकट,
उन्हें लाँघ जाती ताव से

भूल जाती सब
पिछली व्यथाएँ सागर से मिलकर
दोनों के जीवन में तब
रहता नहीं तनिक-भी अन्तर

संयोग-वश यदि बीच में उभर
ऊपर को भेदकर
छिन्न कर डालता बालुका-स्तूप
सरिता और सागर के हृदय को किसी रूप;
वह स्रोतस्वती
मर तो नहीं सकती
सम्हालती अपना जीवन-भार
ह्रद-रूप बन हृदय पसार


कहता हूँ और एक बात,
तुमलोग मन के साथ
सब सम्मिलित होकर
चलो हृदय-सरोवर
उधर अनन्त दिनों तक
रमते रहोगे रस-रंग में अथक

वहाँ खिली है नयी पद्मिनी
मेरी जीवन-संगिनी
स्मरण का सूरज वहीं सदा जगमगाता,
अस्त कभी नहीं जाता

(तपस्विनी-काव्य. द्वितीय-तृतीय सर्ग से)

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अनु. डॉ. हरेकृष्ण मेहेर

वरिष्ठ रीडर एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग

सरकारी स्वयंशासित महानविद्यालय, भवानीपाटना, उड़ीसा - 766001